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अभयकुमार को सौंपा गया। अभयकुमार ने चोर को पकड़ कर राजा श्रेणिक के सामने हाजिर किया। श्रेणिक ने कहा यही चोर है? इसे फांसी की सजा दे दो। मंत्री अभय ने कहा- इसके पास दो विधाएँ है उनममामि और अवनमामि उस विद्या के बलबूते पर ही वृक्ष की डालियों को झुकाकर फलों को पा सका था।
और अपनी पत्नी को उत्पन्न हुए आम्र फलों को खाने के दोहले को पूरा किया था। अतः इसके पास जो दो विधाएँ हैं पहले आप उन्हें शिख लिजिए। वह जो चोर था वह जाति से हरिजन था। राजा खुद सिंहासन पर बैठे और हरिजन (चोर) को नीचे बिठाया इस कारण से विद्या आ नहीं रही थी, तब अभय कुमार ने कहा। पिताजी! विद्या ऐसे नहीं आऐगी। उसे पाने के लिए आपको नीचे बैठना होगा और हरिजन को सिंहासन पर बिठाना होगा तब विद्या आएगी। मंत्री के कहने से उस प्रकार किया गया तो तुरन्त ही विद्या ग्रहण हो गई। फिर श्रेणिक ने कहा कि अब इस चोर को फांसी के फंदे पर लटका दो। तब अभय कुमार ने कहा कि यह तो आपके विद्या गुरू है- विद्या दाता हैं। इन्हें मृत्युदंड की सजा कैसे दे सकते है। श्रेणिक राजा ने उस हरिजन को गुरू मानकर विद्यादाता मान कर सजा माफ कर दी। कहने का तात्पर्य यही है कि राजा होकर भी जब वे एक हरिजन से शिख सकते है तो हम क्यों नहीं शिख सकते। कभी भी किसी भी उम्र में कहीं भी कहीं से भी शिखने की तमन्ना रखनी चाहिए।
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