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गया और वहाँ मौजुद मंत्रीगण सामंत आदि सभी चन्द्रगुप्त की गुरू के प्रति ऐसी अटूट श्रद्धा को देखकर आश्चर्य में डूब गये। यह गुरूभक्ति ही चन्द्रगुप्त की समस्त प्रकार की समृद्धियों का मूल था। साँस ससूर की सेवा करने वाली पुत्र वधु, या उनके आदेशानुसार कार्य करने वाली प्रतिव्रता? गुरू की केवल सेवा करने वाला शिष्य या उनकी आज्ञा को शिरसावंद्य करने वाला शिष्य? पिता की केवल सेवा करने वाला पुत्र या उनके वचनों को लात मारने वाला पुत्र? महान् कौन है? सचमुच समर्पण बिना की सेवा मजदूरी ही है ऐसा कहने में कुछ गलत नहीं होगा। जो शिष्य या पुत्र गुरू और पिता की बाहृय सेवा तो करता है, परन्तु उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार नहीं है और आज्ञापालन नहीं कर पाने का दिल में खेद भी नहीं हैं तो ऐसे शिष्य और पुत्र की सेवा जैसे मजदूर पेट भरने के लिए मजदूरी करता है उससे अधिक नहीं है। श्रीमंत की सेवा से रोटी कपड़ा मकान मिल सकता है। सद्गुरू की सेवा एकाध सद्गति का बुकिंग करवा दे, परन्तु सम्पूर्ण दुःखक्षय और कर्मक्षय नहीं जबकि गुरू आज्ञा के पालन से मुक्ति भी मिलती है। शास्त्रों में शिष्य के पाँच प्रकार कहे हैं।
(1) गुरू के लिए सिरदर्द बने...........अधमाधम शिष्य (अवज्ञा) (2) गुरू के सामने सिर उठाए ......अधम शिष्य (उपेक्षा) (3) गुरू का सिर दबा .............मध्यम शिष्य (सेवा) (4) गुरू की आज्ञा को सिर पर चढ़ाये..उत्तम शिष्य (आज्ञा) (5) गुरू के हृदय में जा बसे ....... उत्तमोत्तम शिष्य(आशय)
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