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तो मोक्ष नहीं मिलेगा, शरीर के साथ वेदनीय कर्म जुड़ा है, तो मन के साथ मोहनीय कर्म जुड़ा है। त्रियोग में कर्मबंधन कराने वाला मन है। विचार शुद्ध हो तो उच्चार शुद्ध निकलते है। मन की मलिनता को मिटाने के लिए संयमभाव शस्त्र के समान है। जैसे घड़ी में तीन कांटे हैं। घण्टे का, मिनट का और सैकेन्ड का। वैसे मन, वचन और काया के तीन कांटे हैं। सैकेन्ड का कांटा सांठ बार धक्का लगाये तब मिनट कांटा एक बार खिसकता है। मिनट का कांटा सांठ धक्के मारे तब घण्टे का कांटा खिसकता है, वैसे मन का कांटा धक्का लगाये तब वचन बोला जाता है और वचन का कांटा धक्का मारे तब काया को धक्का लगता है। मन के कांटे को प्रयत्न पूर्वक स्थिर रखने की जरूरत है।
आजकल शराब, अण्डे, मांसादि व्यशनों से काया को अपवित्र किया जा रहा है जैसा खायेंगे विचार भी वैसे ही आयेंगे । अफ्रिका के डरबन शहर में कस्तुरबा बीमार हुए। तब वहाँ डॉक्टरों ने उनको सलाह दी मांस खाने की। गाँधीजी ने पूछा बोल तेरी इच्छा क्या है? कस्तुरबा ने जो जवाब दिया, गांधीजी ने आत्म कथा में लिखा है। आप मुझे मांस खाने की इच्छा पूछ रहे हो? यह मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता है। अतः मैं इस देह को मांस खा कर अपवित्र करना नहीं चाहती। मौत कल आनी हो आज आये। मैं मांस खाकर जीऊं उससे अच्छा है राम का नाम लेते-लेते मर जाऊं! जो लोग व्यशनों से अपने शरीर को अशुद्ध, गंदा करते हैं उनके गालों पर कस्तुरबा का जवाब करारा तमाचा है। कषाय भी अपवित्र करते हैं। निमित्त मिलते ही कषाय भाव आ जाते है। क्रोध, करूड़ और उत्कुरूड़ दोनों मुनि महान तपस्वी थे। नगर के लोगों ने किसी कारण से उनका अपमान तिरस्कार किया उस निमित्त से क्रोध के वशीभूत होकर समग्र नगर के संहार के लिए सात-सात दिन रात तक बरसात गिराकर नगर का विनाश किया, और वे सातवीं नरक में गये। त्रिपृष्ठ वासुदेव ने शय्यापालक के कान में क्रोध कषाय के कारण गरम-गरम सीसा डलवाया, वे भी सातवीं नरक में गये। क्रोध के कारण स्कंदिलाचार्य मरकर व्यंतर बन गये। चंडकौशिक की आत्मा पूर्व के साधु के भव में शिष्य के निमित्त
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