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(अंधेरा), ग्रन्थ के सम्बन्ध में मूर्खता और सुख के प्रसंग में क्लेश उपद्रव रूप है, उसी प्रकार धर्म की आराधना में दम्भ उपद्रवरूप है। लोगों को ठगने, उल्लू बनाने और भरमाने के लिए ज्ञानी ध्यानी बन कर बैठे उस व्यक्ति की जैन शास्त्रों में कोई कीमत नहीं है। यूं तो मछली को पकड़ने के लए स्थिर बने, बगुले, चूहा पकड़ने के लिए तत्पर हुई बिल्ली और ग्राहक को ठगने के लिए तत्पर बने व्यापरी में स्थिरता होती है, परन्तु ऐसी स्थिरता की कीमत नहीं होती। दम्भी को कितना अस्वाभाविक रहना पड़ता है। न हो उसे प्रगट करना पड़ता है और जो है उसे छिपाना पड़ता है। अस्वाभाविकता, असलियत कहाँ तक छिपी रहेगी? वह तो एक दिन गधे ने ओढ़ी शेर की खाल की तरह प्रगट होगी तब कैसी फजीहत होगी? दम्भी लोगों को यह पता तो होता है कि कभी मुश्किल में पड़ेंगे परन्तु उन्हे दम्भ पर अति विश्वास होता है क्योंकि उनके प्रयोग दो पाँच बार सफल हो गये थे कि इससे लोग मूर्ख बन सकते है। अगर आपका पुण्य जोर करता हो तो आप कुछ समय तक सभी लोगों को मूर्ख बना सकते हैं या कुछ लागों को कुछ समय तक मूर्ख बना सकते हैं, परन्तु सभी लोगों को हमेशा मूर्ख नहीं बना सकते। रामकृष्ण परमहंस ने पाँच प्रकार के लोगों से सावधान रहने के लिए कहा
(1) जो आदमी धार्मिक होने का दिखावा करता हो। (2) जिस की वाणी का प्रवाह पानी के झरने की तरह अविराम बहता
हो।
(3) जिसका हृदय अनावृत्त (बंद) हो। (4) जो तालाब काई से अच्छादित हो।
(5) जो स्त्री लम्बा घुघट निकालती हो। (1) जो धार्मिक दिखने की कोशिश करता है। उससे सावधान रहना ये तुम्हें फंसाने का जाल बिछा रहा है। कहा भी है “लम्बा तिलक मधुर वाणी यह है धूर्त की निशानी"।
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