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शुद्ध भावरूप जल से स्नान करके अपने राग-द्वेष रूप आंतरिक मेल को दूर करता है और अपने चित्त को अति निर्मल करता है।
इस तरह जिसका अंतःकरण राग-द्वेष रूपी मेल दूर होने से अत्यंत स्वच्छ हुआ है, वही सबसे पवित्र है।
देवों का शरीर वैक्रिय होता है। कितने भी भोग भोगो थकता नहीं है। बहुत बारिक सुक्ष्म और उत्तम पुद्गलों से बना होता है। पसीने से रहित होता है। नौ अथवा बारह द्वार अर्थात् नाक आदि से गंदगी निकलती नहीं है। रोग
और मेल इत्यादि से रहित होता है। मानवीय शरीर की अपेक्षा कई गुना विशिष्ट प्रकार की सुंदरता और भव्यता होती है। इसकी तुलना में मानवीय शरीर भोग भोगने से थक जाता है, रोग ग्रस्त हो जाता है। स्थूल तो है ही, और श्रेष्ठ पुद्गलों से भी बना हुआ नहीं है। पसीने की बदबू से भरा है। निरंतर नौ (बारह) द्वारों से अंदर की गंदगी बाहर निकलती रहती है। कई रोगों से घिरा हुआ है। धोकर साफ स्वच्छ करने पर भी फिर मलिन हो जाने के स्वभाव वाला है। देवों के शरीर की तुलना में कुरूप और काला है। जैसे शालीभद्रजी श्रेणिक महाराजा के श्वासोच्छावास को भी सह नहीं पाये थे, वैसे देव भी मनुष्य के शरीर से निकलने वाली गंदगी को सह नहीं पाते है।
घर में जब कोई मंदिर बना लेता है, तो उस मंदिर में सोता नहीं है, उस मंदिर में लड़ने-झगड़ने नहीं जाता, खान-पान भी उस मंदिर में नहीं करता, उस मंदिर में सिर्फ दर्शन-पूजन-प्रार्थना को जाता है। हर तरह से मंदिर को साफ-सुथरा और पवित्र रखा जाता है। घर कितना ही अपवित्र हो उस कोने को पवित्र रखता है, वैसे ही शरीर भी एक मंदिर है वह घर वाला मंदिर प्रभु का मंदिर है, और शरीर आत्मा का मंदिर है। जिस तरह मंदिर को पवित्र रखा जाता है वैसे ही शरीर को भी पवित्र रखा जाना चाहिए। जीवन को भी पवित्र रखा जाना चाहिए। घर के मंदिर में पवित्र कार्य होते है वैसे जीवन में भी पवित्र कार्य होने चाहिए। जब घर के मंदिर में विराजित भगवान की इतनी चिंता करते हैं, तो शरीर में विराजित आत्मा की चिंता क्यों नहीं करते।
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