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सेव्या धर्माचार्या: "धर्मगुरू की सेवा करनी"
वर्तमान काल में भरतक्षेत्र में साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा केवली भगवंत और श्रुत केवली (चौदह पूर्वी) का योग नहीं है...... फिर भगवान महावीर प्रभु के द्वारा स्थापित शासन विद्यमान है। इस काल में भी जिन वचन के प्रति पूर्णसमर्पित सद्गुरू के चरण कमल की सेवा द्वारा आत्मा मुक्ति मार्ग में आगे बढ़ सकती है। इस भवसागर से पार उतारने के लिए सद्गुरू ही सुदृढ़ नौका के समान है। यह भावना शिष्य के हृदय में दृढीभूत हो जानी चाहिये। शिष्य का जीवन गुरूचरणों में पूर्णतया समर्पित होना चाहिए। गुरू आदेशानुसार ही उनके जीवन की प्रत्येक क्रियाएँ होनी चाहिये। तीर्थंकर रूपी सूर्य तथा गणधर व केवली भगवंतरूपी चंद्र के अस्त हो जाने पर अमावस्या के समान घनघोर अंधेरी रात में आचार्यादि गुरूभगवंत ही दीपक बनकर भव्य जीवों को तीर्थकर परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट मोक्ष मार्ग का पथ प्रदर्शन कराते है, अतः गुरू भगवंतों का हमारे उपर जो उपकार हैं उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। ऐसे उपकारी गुरू भगवंतों की जीवन पर्यंत सेवा की जाय तो भी उनके उपकार के ऋण से छुट नहीं सकते हैं। उपाध्यायजी महाराज ने कहा
समकितदायकगुरूतणो, पच्चुवयारनथाय।
भव कोड़ा कोड़ी करी, करता सर्व उपाय॥ अनेक उपायों द्वारा करोड़ों भवों तक समकित दाता गुरूदेव की सेवा भक्ति की जाय तो भी उनके उपकार में से ऋण मुक्त नहीं हो सकते है। ऐसे उपकारी गुरू भगवंत हमारे लिए परम आदरणीय और उपास्य होते है। उनका विनय बहुमान और सेवा करना हमारा परम कर्त्तव्य है। “दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामिगुरुश्च लोकेऽस्मिन्" प्रशमरति ग्रन्थ में माता, पिता, शेठ और गुरू के उपकार को दुष्प्रतिकार कहा है। दुष्प्रतिकार अर्थात् जिन के
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