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जाता है कि अरे! मैं तो साधु हूँ। महर्षि अपने मन में उठने वाले क्रोध वैरभाव के लिए पछतावा करते है और जिस राजर्षि के लिए मैंने सातवीं नरक कहा था। उन्होंने ही अब केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के पास न शस्त्र था, नहीं वे रणागण में गये थे और न उन्होंने अपने हाथों से किसी शत्रु पर तलवार चलायी, पर मन ही मन उन्होंने युद्ध कर लिया, शत्रुओं को भी मार गिराया और सत्य बोध होने पर जीवन का परमसाध्य भी साध लिया ।
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पसन्द और नापसन्द पर विजय पाना महर्षियों के लिए भी कठीन है। अतः उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं लोक स्तुति या लोकनिंदा से साधकों को बचना होगा। सामान्यतया लोग, लोग अभिप्राय से चलने वाले होते हैं । दूसरों की ओर से अच्छा अभिप्राय मिलने से खुद को सुखी मान लेते हैं और दूसरों की ओर से गलत अभिप्राय मिलने से खुद को दुःखी मान लेते हैं। खुद के हर कार्य में सोचते हैं कि लोग नाराज तो नहीं होंगे? लोग मेरी टीका-निंदा तो नहीं करेंगे न । यही लोक संज्ञा है । साधक के लिए यह बहुत बडा विघ्न हैं संसारी जीवों को तीन प्रकार की संज्ञाएँ होती हैं। (1) वित्तसंज्ञा (2) पुत्रसंज्ञा (3) लोकसंज्ञा । लोकसंग्रह की इच्छा, लोगों में प्रिय बनने की इच्छा । वित्तसंज्ञा जिदंगी भर मन में समाये रहती है। बेचैन बनाये रखती है। सतत धन की चिंता लगी रहती है। कहाँ से धन आये कैसे धन आये, कैसे धन को बढ़ाये, कहाँ रखे, कहाँ इन्वेस्ट करे, क्या धंधा करे, न जाने धन की कितनी प्रकार की चिंताएँ होती रहती है। धन की इच्छा कभी पूरी नहीं होती। एंड्रू कारनेगी एक चपरासी की तरह जीया और चपरासी की तरह मरा । सच तो ये है चपरासी भी दफ्तर में बाद में पहुँचते थे, और वह उनसे एक घंटा पहले पहुँच जाता था। उसका हिसाब यह था कि दफ्तर खुले दस बजे तो कारनेगी नौ बजे, दस बजे चपरासी पहुँचे, ग्यारह बजे क्लर्क, बारह बजे मेनेजर, एक बजे डायरेक्ट पहुँचे । तीन बजे डायरेक्टर नदारद चार बजे मेनेजर पाँच बजे क्लर्क फिर चपराची और वह सात बजे तक बैठा हैं यह तो चपचासी से भी बदतर हालत हो गई। जब दस अरब में यह हालत हो गई तो सौ अरब में क्या हालत होती,
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