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देखो तो धीर-गम्भीर–प्रसन्न भाव है। हम उन्हें देखते रहें अपलक जुग-जुग तक देखते रहे। वही तेजस्विता वही चाल और वही ध्यान। “मार्ग च्यवननिर्जरार्थं परिषोढ़व्याः परिषहाः" प्रभु के मार्ग से पतित न हो जाए, च्यूत न हो जाए, प्रभु मार्ग से दूर न हो जाए तथा निर्जरा के लिए परिषह सहन करने चाहिए। परन्तु उस प्रभु ने कभी स्वस्थता गंवाइ हो ऐसा कभी सुना है? भगवान की बात जाने भी दिजिए। छद्मस्थ अवस्था में कायोत्सर्गस्थ खड़े रहे गजसुकुमार मुनि को कितना अपमानित किया गया था किस तरह भला-बुरा कहा गया था फिर भी वे अपने स्वभाव से च्युत न हुए थे। बुद्ध के साथ अंगूलीमाल ने यही सलूक किया था तो गाँधीजी को गोड्से मिल गया था। ऐसे प्रसंगों में कई शासन प्रभावक महान आचार्यों ने भी कभी स्वस्थता नहीं गँवाई थी। किसी की निंदा न करना यह भी साधना का एक अंग हैं, वैसे किसी की निंदा से हम विचलित न हो, या झूझला न उठे यह भी साधना का एक अंग है। वे ध्येय को कभी पा नहीं सकते जो लोगों की थोड़ी सी भी निंदा/बकवास से विचलित हो जाते हैं। अगर इस तरह से सभी के बकवास को गम्भीरता से लिया जायेगा तो व्यवहार में भी आदमी शायद ही ध्येय/ लक्ष्य को हासिल कर
सकता है।
भर्तृहरि संन्यास स्वीकार के कई वर्षोंबाद घूमते-घूमते एक बार उज्जैनी के बाहर आ पहुँचे। और वहां वे किसी वृक्ष के नीचे साफ सुथरी जगर पर विश्राम कर रहे थे। तब उस वक्त कुछ स्त्रियाँ पानी भरने जा रही थी। उन महिलाओं ने उन्हें देखा तो वे बोलने लगी। इन्हें देखो तो जरा! राजपाट तो छोड़ दिया। परन्तु इतना सब कुछ छोड़ने के बावजूद भी गजब हो गया इनसे अभी तक तकिया नहीं छुटा । अच्छा नर्म और मुलायम तकिया नहीं मिला तो पत्थर का सिरहाना बनाकर सो रहे हैं। वे स्त्रियाँ इस तरह उनका मजाक उड़ाने लगी। जब भर्तृहरि के कानों ने ये शब्द सुने तो उन्हें भी लगा कि ये स्त्रियाँ जो कह रही है ठीक और योग्य ही कह रही हैं। वास्तव में यह मेरी भूल है, मैंने सब कुछ छोड़ा परन्तु सिरहाना नहीं छोड़ा मुझे यह भी छोड़ देना
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