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प्रसन्नता और आत्मानंद की मस्ती दृढ़ होती जाती है। वास्तव में ममत्व ही गाढ़ बंधन है और उसके कारण ही दुन्यवी पदार्थों में हर्ष शोक का अनुभव होता है। ममत्व के कारण ही उस वस्तु के विनाश अथवा वियोग में मनः संताप का अनुभव करती है। स्मरण रहें संसार के सभी पारिवारिक/ कौटुम्बिक संबंध अस्थायी है। उन संबंधों को नित्य मानकर चलना, यह हमारी गंभीर भूल है। पंचसूत्र में कहा है संजोगो वियोगो कारणं संयोग वियोग का कारण हैं। जहाँ-जहाँ संयोग है वहाँ-वहाँ वियोग है। संसार के सभी संयोग संयोगिक है परन्तु अनेकों के साथ रहते-रहते हम भूल ही गये हैं कि मैं अकेला हूँ। नमिरार्षि को भूली हुई इस याद को एक प्रसंग ने याद दिलाया। बात प्रसंग यूं हुआ था कि छह छह मास बीतने पर भी अनेक-अनेक उपचार करने पर भी दाह ज्वर कम नहीं हो रहा था। उनके लेप के लिए रानियाँ चंदन घीस रही थी। इससे कंगन की आवाज आ रही थी। परन्तु नमिराजर्षि वेदना से इतने संतप्त थे कि उन्हें मधुर आवाज भी भयंकर और कर्कश लगती थी। अप्रिय लगती थी वे चिल्ला उठे यह कर्कश आवाज अभी ही बंद हो जानी चाहिए। उनकी आज्ञा मतलब आज्ञा । आवाज को बन्द होना ही पडेगा। सन्नाटा छा गया तब राजा ने पूछा अब आवाज क्यों नहीं आ रही हैं? क्या तुमने चंदन घिसना ही बंद कर दिया? राजन! चंदन घिस रही रानियों ने अब सौभाग्य सूचक एक-एक कंगन पहने है, दो-दो या इससे अधिक कंगन हो तो आवाज आती है। एक से आवाज कैसे आये? इस उत्तर से नमिराजर्षि का मन दूसरे ही पथ पर चला गया। अंदर विचार क्रांति का आन्दोलन पैदा हुआ। एक में शान्ति होती है, अद्वैत में आनंद होता है। दो होते ही, द्वैत होते ही, संग होते ही सब बिगड़ता है तो मुझे भी असंग की राह पर ही जाना चाहिए। दाह चला जाय तो प्रभु! मुझे तेरी राह पर चलना है। दाह ज्वर मिट गया और नमिराजर्षि ने असंग की राह पकड़ ली । अकेले ही जन्में हैं और अकेले ही मर जाना है फिर क्यु दूसरे की मगजमारी में जाना? हम भले! हमारा काम भला । ऐसा सोचकर यहाँ एकल हो जाने की बात नहीं हैं यहाँ हमें सबके साथ रहना है। इच्छा हो या
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