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मेरा और उनका नाता सदैव स्थायी नहीं रह सकता । या तो मुझे इन्हें छोड़कर जाना पड़ेगा या वे मुझे छोड़ देंगे। दुनिया में संग के जीतने भी साधन सामग्रियाँ है वे सब धोखेबाज हैं। राजा ने संसार के संग का त्यागकर दिया ओर वह निःसंग बन गया, उन्होने खुद को ही सुख का माध्यम बना लिया और फलस्वरूप आत्मा के अक्षय सुख के स्वामी बन गये। अपूर्ण ज्ञान अथवा अज्ञान से मानव यह कल्पना कर लेता है कि मुझे धन का संग हो जाय तो मैं सुखी होऊ, मुझे पुत्र का संयोग हो जाय तो मैं सुखी हो जाऊँ, मुझे रूपवती पत्नी का “संग मिल जाय तो मैं सुखी हो जाऊँ । यशोविजयजी कहते हैं कि मानव की ये
सब बातें मात्र कल्पना ही है। वास्तव में ज्यों ज्यों भौतिक वस्तु समृद्धि का संग बढ़ता है त्यों त्यों मानव दुःख के गर्त मैं अधिक से अधिक डूबता जाता हैं। वह संग ही उसे तंग कर देता है। मकड़ी का जाला उसके लिए ही बंधन रूप बन जाता है दुनिया में सुख के जो साधन हैं। इस सत्य को पहचान लो। संग में दुःख है- निःसंग मे सुख है। हमें संग-संबंध बहुत अच्छे लगते हैं। ये अच्छा लगना ही आशक्ति है बंधन हे । श्लेष्म में फंसी मक्खी की तरह आसक्त इन्सान स्वतंत्रता गँवा देता है। परतंत्रता के साथ ही सुख भी भाग छुटता है। कोई मुसाफिर गाडी में घर नहीं बनाता। अच्छी जगह मिलने पर भी वहाँ आसक्त नहीं होता। परन्तु यहाँ हम यह भूल जाते है। पचीस-पचास वर्ष की जिदंगी में कितनी ही जगह पर आसक्त हो जाय करते हैं। यात्रा के स्थलों को ही मंजिल समझ लिया करते हैं। जन्मे तब हम अकेले थे, मरेंगे तब अकेल रहेंगे। स्वर्ग नरक में पाप पुण्य के फल अकेले भोगेंगे। जन्में अकेले, मरेंगे तब भी अकेले! बीच के जीवन में अनेकों से संपर्क! अनेकों से संग! बस में चड़े तब अकेले, बस स्टेण्ड पर उतरेंगे तब भी अकेले परन्तु बीच यात्रा में साथ रहना । संयोग यह जीवन भी यात्रा से कम नहीं है। मृत्यु का स्टेशन आते ही हमें जीवन गाड़ी से उतर जाना पडेगा । बाहृय भौतिक पदार्थों का ममत्व बंधन जितना अधिक होता है। मृत्यु के समय उतनी ही अधिक वेदना और पीडा की अनुभूति होती है। बाहृय पदार्थों से ज्यों-ज्यों मन का अलगाव बढ़ता जाता है। त्यों-त्यों आत्म
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