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खड़े कर दिये। मकान/बंगला मालिक की बातें साधु को बचकानी लगी। उनके चेहरे पर रहस्यभरी मुस्कान उभर आयी। जब मकान मालिक ने उस रहस्यभरी मुस्कान का कारण पूछा तो साधु ने कहा- तुम्हारी आत्म-प्रशंसा कितनी निर्जीव है। तुमने बंगला बनाया, बंगला रहने के लिए आवश्यक है, किन्तु उसके प्रति उन्नत होना भी आवश्यक है? यह सब कुछ हास्यास्पद ही है। आदमी प्रशंसा पाने के लिए कैसे कैसे उपाय करता है। ओर तो ओर साधुओं से प्रशंसा करवाना चाहता था। राज दरबाज में पहुँचें हुए दूसरे राजा ने प्रश्न किया, तुम्हारा राजा कैसा और मैं कैसा? दूत के लिए यह धर्म संकट था। दुविधा पूर्ण प्रश्न था। अपने राजा/स्वामी को बढ़ा-चढ़ाकर बताए तो यह राजा नाराज हो जाएंगे, और जिस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए आया हूँ, वह होगा नहीं। यदि इस राजा की प्रशंसा करूंगा तो मेरे अपने राजा नौकरी से बर्खास्त कर देंगे, लेकिन दूत बुद्धिमान और चतुर था। उसने कहा राजन! क्या ऐसे प्रश्न के लिए कोई स्थान भी है। पूनम के चाँद की तरह सोलह कलाओं से खिले हुए आप कहाँ और दूज के चाँद की तरह क्षीण होने वाले मेरे राजा कहाँ? दूत के उत्तर से राजा फुला न समाया और दूत को पुरस्कार देकर उसका जो कार्य था वह भी पूरा किया। परन्तु यह खबर अपने स्वामी राजा के पास पहुँच गयी। दूत जब स्वामी राजा के पास पहुंचा तो उनके क्रोध का कोई ठीकाना नहीं रहा। नालायक! मेरा नमक खाता है और दूसरों के सामने मुझे हल्का दिखाता है? दूत ने राजा को शांत कर कहा- राजन! मैने तो आपका गौरव ही बढ़ाया हैं । मैंने कहा वह राजा पूनम के चाँद की तरह है, इसका मतलब यह है कि वह अब दिन-ब-दिन घटता/क्षीण होता जाएगा। दूसरी ओर आपको दी दूज के चाँद की उपमा आपकी वृद्धि को सूचित करती है। दूज का चाँद कहकर मैंने आपका नाम बढ़ाया है, प्रशंसा ही की है। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वामी राजा ने भी उसे पुरस्कृत कर शाबाशी दी। आत्म प्रशंसा से खुश होने वाले लोग स्वयं को पूनम के चाँद जैसा समझते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इन्सान दुनिया की नजरों से चाहे जैसा ही क्यों न हो, अपनी नजरों
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