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वह चौथा पद बन नहीं पा रहा था। राजा सोचने लगा। अहो! मेरे पास पारावर संपत्ति हैं, कितनी मनोहर, खुबसुरत, रूपवती और कलाकुशल मेरी स्त्रियाँ हैं? रूपवान स्त्रियाँ तो मुझे ही मिली है। और मेरा बन्धु वर्ग भी कितना सज्जन है, सदैव. मेरा हित ही चाहते हैं। सेवकों/परिचायकों की तो क्या बात कहूँ? वे तो मेरे इशारे के साथ दौड़कर सेवा में तत्पर रहते हैं। और साथ ही मेरे पास रण संग्राम में जोरदार गर्जना करने वाले हाथी भी है और दूर सुदूर तीव्रगति से गमनागमन के लिए सुयोग्य घोड़े भी हैं। आह! इन्द्र और चक्रवर्ती को भी मेरी समृद्धि देखकर इर्ष्या होती होगी? वह राजा अपनी समद्धि को काव्य रूप दे रहे थे, परन्तु राजा को उस काव्य का चौथा पद सूझ नहीं रहा था। वे सोचते हुए हि पलंग पर लेट गए। उसी वक्त एक चोर राजा के शयन खंड में चोरी करने के लिए आ पहुंचा था। वह आदमी था तो विद्वान और सज्जन किन्तु परिस्थिति वश वह चोरी करने के लिए बाध्य हो गया था। उसने भी ब्लेक-बोर्ड पर काव्य के तीन पद देखे तीन पदों को पढ़ते ही उसे काव्य के चौथे पद की स्कुरणा हो आई और राजा की नजर चुराकर उसने चौथा और अंतिम पद लिख दिया संमिलने नयनयोनही किञिचदस्ति । और वह वहाँ से चला गया। राजा तो निद्राधीन हो गये। प्रातः काल होते ही वे निद्रा से जागे और उन्होंने दिवार पर नजर डाली। अरे! यह क्या? काव्य के चौथे पद की पूर्ति किसने की? चौथा पद पढ़कर राजा को एक झटका सा लगा। चौथे पद में लिखा था दोनों आंखें बंद हो जाने पर कुछ भी नहीं है। इस पद ने तो मुझे सम्यग् बोध करा दिया, मैं तो मान रहा था यह मेरा.... यह मेरा। किन्तु हकिकत में तो मेरा नही हैं। आंख खुली है वहां तक मेरा है और आंख बंद होते ही मेरा कुछ नहीं है। राजा को सत्य की प्रतीति हो गई। दूसरे दिन राजा ने ढिंढोरा पिटाया। बीती रात में मेरे राज महल में कौन आया था? और अधूरे काव्य की पदपूर्ति किस ने की? ढिंढोरा सुनकर वह सज्जन चोर राजा के सामने उपस्थित हुआ और उसने सच्ची बात बता दी। राजा को दुनिया का सत्य बोध हो गया, उसने सोचा यह क्या? मैं इन साधनों के संग सुख के सपने संजोए था, परन्तु अफसोस है कि
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