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त्यक्ताव्या च पराशा
"अन्य की आशा नहीं रखनी" हम बड़भागी है कि हमें ये कीमति जन्म प्राप्त हुआ है। ऐसा कीमति जन्म पाने के बाद अपनी इच्छाओं और आशाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। अगर ऐसा होगा तो यह जन्म उन लोगों के लिए सुखद और शानदार बन जाता है। और अगर नियंत्रण नहीं कर पाएंगे तो दुःखद और बोझ रूप बन जायेगा, आज अगर हम दुःखी है तो अनेक प्रकार की बड़ी-बड़ी आशाओं के कारण ही दुःखी है। बेटा मैं जैसा कहूं वेसा ही करे, मैं जो काम कहूं वही करे, मुझे सम्मान दे, परन्तु ये आशाएँ पूरी नहीं हो पाती है। इधर बेटे की भी इसी प्रकार की अपेक्षाएं रहती हैं। पत्नी से पति आशा करता है कि मैं जब घर लौटू, पत्नी मुझे प्रेम से बुलाएं खिलाएं और पिलाएं। इधर पत्नी ढेर सारी शिकायतें लेकर तैयार बैठती है। यूँ एक दूसरे की अपेक्षाएं पूरी नहीं होती इसलिए एक दूजे पर बिगड़ते रहते हैं। सास को बहू से और बहू को सास से ऐसी ही आशाएं बंधी रहती है परन्तु आशानुरूप नहीं होता इस कारण से वे दोनों ही एक दूसरे से उखड़ी-उखडी सी रहती है। ढब्बू अपनी पत्नी से कह रहा था एक दिन, गुलजान शादी के समय तुमने तो यह वचन दिया था कि तुम मेरा सम्मान करोगी, मुझे प्रेम करोगी, और सेवा भी। पर अब तुम्हे क्या हो गया है कि सदा चुडैल की तरह पेश आती हो? गुलजान ने कहा : नाशमुए, तुझमें इतनी भी अक्ल नहीं की कुछ समझ सको! उस वक्त क्या इतने लोगों के सामने तुमसे विवाद करती? वह दुष्ट ब्राह्मण पंड़ित कह रहा था कि प्रेम करोगी, सेवा करोगी, तो उस वक्त क्या नहीं कहती? कह देती कि नहीं? अब एकान्त में जो सत्य है, वही प्रगट होगा वहाँ भीड़-भाड़ में तो मैने सब बातों में हा भर दिया था। अपना जीवन अनेकों की सहायता से टीका हुआ है। हमारे लिए पृथ्वी, पानी, वनस्पति, वायु, अग्नि इत्यादि सतत जीवन का बलिदान देते रहते हैं। एक दिन भी अगर ये हड़ताल पर उतर आये तो हमारा जीवन समाप्त
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