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तरफ चला | उस वक्त सम्राट नमाज पढ़ रहा था। नमाज की समाप्ति के साथ ही खुदा से बंदगी करते हुए कुछ याचना कर रहा था। वह बोल रहा था, हे खुदा! तेरी मेहरबानी से मुझे दिल्ली का तख्ता मिला अब आप मुझ पर जरा और कृपा किजिये ताकि पंजाब का साम्राज्य भी मुझे मिल जाय । फकिर ने ज्योंही सम्राट की वह प्रार्थना सुनी, उसी समय वह दौड़कर अपनी कुटिया में लौट आया। सम्राट को जब इस बात का पता चला कि फकीर यहाँ आया था और मुझे मिले बिना ही चला गया.... यह मालुम होते ही सम्राट ने फकीर को अपने महल में बुलवाया। फकीर के आने पर सम्राट ने पूछा, आप मेरे महल में आये थे, फिर भागे क्यो? फकीर ने कहा मैं रास्ता भूल गया था। कैसे? मैं आपके पास कुछ याचना करने के लिए आया था, परंतु आपकी खुदा की बंदगी सुनने पर मुझे पता चला कि आप भी भिखारी ही हो.... इसीलिए मैं यहां से वापस चला गया था। फकीर ने बात को ओर स्पष्ट करते हुए कहा, अपार संपत्ति और विशाल साम्राज्य मिलने के बाद भी जिसकी भूख शांत नहीं होती है, वह भिखारी नहीं तो और क्या है? फकीर की इस बात को सुनकर सम्राट स्तब्ध हो गया। सचमुच जिसकी स्पृहा आकाश के समान विराट है, ऐसा व्यक्ति चक्रवर्ती के साम्राज्य के बीच रहकर भी दुःखी है, जबकि जिसके हृदय में निस्पृहता रही हुई है, वह अल्प साधनों के बीच भी अत्यन्त सुखी है। सारांश यही है कि जिसकी स्पृहा अधिक है, वह दुःखी है और जिसने अपनी स्पृहाओं पर नियंत्रण पा लिया है, वह संयोग के बीच भी अत्यन्त सुखी है। दूसरों की आशा अपेक्षाओं को जैसे-जैसे छोड़ते जाएँगे वैसे-वैसे अपने पास सुख बढ़ता जाएगा। हमारा कोई मालिक न रहे! हम खुद ही खुद के मालिक! बाहरी सामग्रियों की अपेक्षाओं आशाओं को घटाने के लिए आंतरिक वृत्तियों पर नियंत्रण लाना जरूरी है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि ऐसी वृत्तियाँ है जो मनुष्य को वस्तुओं या व्यक्तियों का गुलाम बनाये रखती है। पर की आशाओं को हटाने के लिए आंतरिक वृत्तियों पर काबू जरूरी है। जो मनुष्य आंतरिक वृत्तियों का गुलाम है वह बाहृय सामग्रियों का भी गुलाम रहेगा और गुलामी के
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