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[प्रथम परिच्छेद
पर शब्द का अर्थ समझाने के लिए अलग सूत्र रचने का विशेष प्रयोजन है। घट, पट आदि पदार्थों के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। बौद्धों में एक माध्यमिक सम्प्रदाय है। वह घट आदि बाह्य पदार्थों को और ज्ञान आदि आन्तरिक पदार्थों को मिथ्या मानता है। वह शून्यवादी है । उसके मत के अनुसार जगत् का यह समस्त प्रपंच मिथ्या है, वास्तव में कोई भी पदार्थ सत् नहीं है। अनादि कालीन मिथ्या संस्कार के कारण हमें यह पदार्थ मालूम होते हैं।
माध्यमिक के अतिरिक्त वेदान्ती लोग भी बाह्य पदार्थों को मिथ्या समझते है। इनके मत से एकमात्र ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म ही सत् है, ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य समस्त प्रतीत होने वाले पदार्थ असत् हैं। बौद्धों में भी एक सम्प्रदाय सिर्फ ज्ञान को वास्तविक मानता है और अन्य पदार्थों को भ्रम मात्र कहता है । इन सब मतों के विरुद्ध, जैनदर्शन ज्ञान को वास्तविक मानता है और ज्ञान द्वारा प्रतीत होने वाले घट, पट आदि अन्य पदार्थों को भी वास्तविक स्वीकार करता है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन और वेदान्त दर्शन का विरोध करने के लिए आचार्य ने इस सूत्र का निर्माण किया है।
- स्वव्यवसाय का समर्थन · स्वस्य व्यवसायः स्वाभिमुख्येन प्रकाशनम्, बाह्यस्येव तदाभिमुख्येन; करिकलभकमहमात्मना जानामि ॥१६॥ " शब्दार्थ-बाह्य पदार्थ की ओर उन्मुख होने पर जो ज्ञान होता है वह बाह्य पदार्थ का व्यवसाय कहलाता है, इसी प्रकार ज्ञान अपनी ओर उन्मुख होकर जो जानता है वह स्व का व्यवसाय कहलाता है । जैसे—मैं, अपने ज्ञान द्वारा, हाथी के बच्चे को, जानता हूँ।