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[ प्रथम परिच्छेद
हेतु का समर्थन समर्थनमेव परं परप्रतिपस्यङ्गमास्तां, दृष्टान्तादिप्रयोगेऽपि तदसम्भवात् ॥ ४१॥
तदन्तरेण
अथ-समर्थन को ही परप्रतिपत्ति का अङ्ग मानना चाहिए, क्योंकि समर्थन किए बिना; दृष्टान्त आदि का प्रयोग करने पर भी साध्य का ज्ञान नहीं हो सकता।
विवेचन हेतु के दोषों का अभाव दिखाकर उसे निर्दोष सिद्ध करना समर्थन है। समर्थन करने से ही हेतु समीचीन सिद्ध होता है। समर्थन को चाहे अनुमान का अलग अङ्ग माना जाय चाहे हेतु में ही उसे अन्तर्गत किया जाय, पर है वह अावश्यक । समर्थन के बिना दृष्टान्त का प्रयोग करना निरर्थक है।
शिष्यानुरोध से अनुमानके अवयव मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितु दृष्टान्तोपनयनिगमनान्यपि प्रयोज्यानि ॥ ४२ ॥
अर्थ-मन्दबुद्धि वाले शिष्यों को समझाने के लिए दृष्टान्त, उपनय और निगमन का भी प्रयोग करना चाहिए । . विवेचन-परार्थानुमान दूसरे को साध्य का ज्ञान कराने के लिए बोला जाता है। अतएव जितना बोलने से दूसरा समझ जाय, उतना बोलना ही उचित है; उसमें किसी अनिवार्य बन्धन की आवश्यकता नहीं है । हाँ, वाद-विवाद के समय वादी और प्रतिवादी दोनों विद्वान होते हैं अतः उन्हें पक्ष और हेतु यह दो ही अवयव पर्याप्त हैं।