________________
प्रमाण-नय-तत्त्वालोक ]
( ६० )
अर्थ - सहचर रूप-रस आदि का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। अत: उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता; इस कारण सहचर हेतु का पूर्वोक्त हेतुओं में समावेश होना सम्भव नहीं है ।
विवेचन - रूप और रस सहचर हैं और दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है । रूप चतु-ग्राह्य होता है, रस जिह्वा ग्राह्य है । जहाँ स्वरूप भेद होता है वहाँ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता और तादात्म्य सम्बन्ध के बिना स्वभाव हेतु में समावेश नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त रूप रस आदि सहचर साथ-साथ उत्पन्न होते हैं और साथ-साथ उत्पन्न होने वालों में कार्य कारणभाव सम्बन्ध नहीं होता । इस कारण सहचर हेतु किसी भी अन्य हेतु में अन्तर्गत नहीं किया जा सकता । उसे अलग हेतु स्त्री कार करना चाहिए ।
हेतुत्रों के उदाहरण
यः
ध्वनिः परिणतिमान्, प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्, प्रयत्नानन्तरीयकः स परिणतिमान् यथा स्तम्भः । यो वा न परिणतिमान् स न प्रयत्नानन्तरीयको यथा वान्ध्येयः । प्रयत्नानन्तरीयकश्च ध्वनिस्तस्मात् परिणतिमानिति व्याप्यस्य साध्येनाविरुद्धस्योपलब्धिः साधर्म्येण वैधर्म्येण च ॥ ७७ ॥
-
अर्थ - शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रयत्न से उत्पन्न होता है, जो प्रयत्न से उत्पन्न होता है वह अनित्य होता है, जैसे स्तम्भ | अथवा जो अनित्य नहीं होता वह प्रयत्न से उत्पन्न नहीं होता है, जैसे वन्ध्यापुत्र | शब्द प्रयत्न से उत्पन्न होता है, अत: वह अनित्य है । यह ( विधिसाधक ) साध्य से अविरुद्ध व्याप्य की उपलब्धि अन्वयव्यतिरेक द्वारा बताई गई है ।