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[अष्टम परिच्छेद
अर्थ-दो प्रकार के प्रारम्भक होते हैं-(१) जिगीषु-विजय की इच्छा करने वाला और (२) तत्त्वनिर्णिनीषु-तत्त्व के निर्णय का इच्छुक ।
जिगीषु का स्वरूप स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणाभ्यां परं पराजेतुमिच्छुः जिगीषुः ॥ ३॥
अर्थ-स्वीकार किये हुए धर्म की सिद्धि करने के लिए, स्वपक्ष के साधन और पर-पक्ष के दूषण द्वारा प्रतिवादी को जीतने की इच्छा रखने वाला जिगीषु कहलाता है।
तत्त्वनिर्णिनीषु का स्वरूप तथैव तत्त्वं प्रतितिष्ठापयिषुस्तत्त्वनिर्णिनीषुः ॥ ४॥
अर्थ-पूर्वोक्त रीति से तत्त्व की स्थापना करने का इच्छुक तत्त्वनिर्णिनीषु कहलाता है।
विवेचन-वाद प्रारम्भ करने वाला चाहे विजय का इच्छुक हो, चाहे तत्त्व निर्णय का इच्छुक हो, उसे अपने पक्ष को प्रामाणिक रूप से सिद्ध करना पड़ता है और पर-पक्ष को दूषित करना पड़ता है। जिगीषु और तत्त्वनिर्णिनीषु का भेद वाद के उद्देश्य पर ही अवलम्बित रहता है, स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषण तो दोनों के लिए समान कार्य हैं।
__ तत्त्वनिर्णिनीषु के भेद अयं च द्वेधा-स्वात्मनि परत्र च ॥ ५ ॥ आद्यः शिष्यादिः॥६॥ द्वितीयो गुर्वादिः ॥ ७॥ ..