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[चतुर्थ परिच्छेद
- विवेचन-वस्तु में अनन्त धर्म हैं, यह बात प्रमाण से सिद्ध है। अतएव किसी भी एक वस्तु का पूर्ण रूप से प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि एक शब्द एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकता है। मगर ऐसा करने से लोक-व्यवहार नहीं चल सकता। अतएव हम एक शब्द का प्रयोग करते हैं। वह एक शब्द मुख्य रूप से एक धर्म का प्रतिपादन करता है,
और शेष बचे हुए धर्मों को उस एक धर्म से अभिन्न मान लेते हैं । इस प्रकार एक शब्द से एक धर्म का प्रतिपादन हुआ और उससे अभिन्न होने के कारण शेष धर्मों का भी प्रतिपादन होगया। इस उपाय मे एक ही शब्द एक साथ अनन्त धर्मों का अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुका प्रतिपादक हो जाता है । इसी को सकलादेश कहते हैं।
___ शब्द द्वारा साक्षात् रूप से प्रतिपादित धर्म से; शेष धर्मों का अभेद काल आदि द्वारा होता है। काल आदि अाठ हैं-(१) काल (२) आत्मरूप (३) अर्थ (४) सम्बन्ध (५) उपकार (६) गुणी-देश (७) संसर्ग (८) शब्द।
__मान लीजिये, हमें अस्तित्व धर्म से अन्य धर्मों का अभेद करना है तो वह इस प्रकार होगा-जीव में जिस काल में अस्तित्व है उसी काल में अन्य धर्म हैं अतः काल की अपेक्षा अस्तित्व धर्म से अन्य धर्मों का अभेद है। इसी प्रकार शेष सात की अपेक्षा भी अभेद समझना चाहिये । इसीको अभेद की प्रधानता कहते हैं । द्रव्यार्थिक नय को मुख्य और पर्यायार्थिक नय को गौण करने से अभेद की प्रधानता होती है। जब पर्यायार्थिक नय मुख्य और द्रव्यार्थिक नय गौण होता है तब अनन्त गुण वास्तव में अभिन्न नहीं हो सकते । अतएव उन गुणों में अभेद का उपचार करना पड़ता है । इस प्रकार अभेद की प्रधानता और अभेद के उपचार से एक साथ अनन्त धर्मा