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प्रमाण-नय-तत्त्वालोक]
(१०४)
प्रमाणं हि करणाख्यं साधनं, स्वपरव्यवसितो साधकतमत्वात् ॥ १५॥
स्वपरव्यवसितिक्रियारूपाज्ञाननिवृत्त्याख्यं फलं तु साध्यम् , प्रमाणनिष्पाद्यत्वात् ॥ १६ ॥
अर्थ-प्रमाण से सर्वथा अभिन्न अज्ञाननिवृत्ति रूप साक्षात फल से हेतु में व्यभिचार आता है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए ।
___ क्योंकि वह-साक्षात् फल भी प्रमाण से कथंचित् भिन्न हैसर्वथा अभिन्न नहीं है।
कथंचित् भेद इसलिए है कि प्रमाण और फल साध्य और और साधन रूप से प्रतीत होते हैं।
प्रमाण करण रूप साधन है, क्योंकि वह स्व-पर के निश्चय में साधकतम है। .
स्व-पर का निश्चय होना रूप अज्ञाननिवृत्ति फल साध्य है, क्योंकि वह प्रमाण से उत्पन्न होता है।
विवेचन-पहले परम्परा फल को प्रमाण से सर्वथा भिन्न मान कर हेतु में दोष दिया गया था, यहाँ साक्षात् फल को मर्वथा अभिन्न मानकर हेतु में व्यभिचार दोष दिया गया है। तात्पर्य यह है कि साक्षात् फल, प्रमाण का फल है पर प्रमाण से कथंचित भिन्नअभिन्न नहीं है। इस प्रकार साध्य के अभाव में हेतु रहने से व्यभिचार दोष है।
किन्तु हेतु में साक्षात् फल से व्यभिचार दोष नहीं है, क्योंकि