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[ सातवाँ परिच्छेद
न्धी अज्ञान की निवृत्ति होती है । इसी प्रकार वस्तु के अंश-विषयक उपादानबुद्धि. हानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि नय का परोक्षफल समझना चाहिए।
- दोनों प्रकार का फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्न है, इसी प्रकार नय का फल नय से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है।
प्रमाता का स्वरूप प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा ॥ ५५॥
चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्त्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवांश्वायम् ॥५६॥
अर्थ-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध आत्मा प्रमाता कहलाता है।
आत्मा चैतन्यमय है, परिणमनशील है, कर्मों का कर्ता है, कर्मफल का साक्षात् भोक्ता है, अपने प्राप्त शरीर के बराबर है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है और पुद्गलरूप अदृष्ट ( कर्म ) वाला है।
विवेचन-चार्वाक लोग आत्मा नहीं मानते । उनके मत का खण्डन करने के लिए यहाँ यह बताया गया है कि आत्मा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण से सिद्ध है । 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूँ' इस प्रकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करता है। तथा 'रूपं आदि के ज्ञान का कोई कर्ता अवश्य है, क्योंकि वह क्रिया है, जो क्रिया होती है, उसका कोई कर्ता अवश्य होता है, जैसे काटने की क्रिया। जानने की क्रिया का जो कर्त्ता है वही आत्मा है । इस प्रकार