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प्रमाण-नय-तत्त्वालोक]
(५८)
स्वव्यापारापेक्षिणी हि कार्य प्रति पदार्थस्य कारणत्वव्यवस्था, कुलालस्येव कलशं प्रति ॥ ७३ ॥
. न च व्यवहितयोस्तयोर्व्यापारपरिकल्पनं न्याय्यमतिप्रसक्तरिति ॥ ७४ ॥
परम्पराव्यवहितानां परेषामपि तत्कल्पनस्य निवारयितुमशक्यत्वात् ।। ७५ ॥
अर्थ-अतीत जाग्रत-अवस्था का ज्ञान, प्रबोध (सोकर जागने के पश्चात् होने वाले ज्ञान ) का कारण नहीं है और भावी मरण अरिष्ट (अरुन्धो ताग न दीखना आदि ) का कारण नहीं है, क्योंकि वे समय से व्यवहित हैं इसलिए प्रबोध और अरिष्ट उत्पन्न करने में व्यापार नहीं करते ।।
जो कार्य की उत्पत्ति में स्वयं व्यापार करता है वही कारण कहलाता है, जैसे कुम्भार घट में कारण है।
... समय का व्यवधान होने पर भी अतीत जाग्रत अवस्था का ज्ञान और मरण, प्रबोध और अंरिष्ट की उत्पत्ति में व्यापार करते हैं, ऐसी कल्पना न्यायसंगत नहीं है; अन्यथा सब घोटाला हो जायगा।
(फिर तो) परम्परा से व्यवहित अन्यान्य पदार्थों के व्यापार की कल्पना करना भी अनिवार्य हो जायगा ।
. विवेचन-पहले बताया जा चुका है कि जहाँ समय का व्यवधान होता है, वहाँ कार्य-कारण का भाव नहीं होता । इसी सिद्धान्त का यहाँ समर्थन किया गया है।