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प्रमाण-नय-तत्त्वालोक]
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प्राप्त के भेद स च द्वेधा-लौकिको लोकोत्तरश्च ॥ ६ ॥ लौकिको जनकादिः, लोकोत्तरस्तु तीर्थकरादिः॥ ७ ॥
अर्थ- प्राप्त दो प्रकार के होते हैं-(१) लौकिक प्राप्त और (२) लोकोत्तर प्राप्त।
_ पिता आदि लौकिक प्राप्त हैं और तीर्थंकर आदि लोकोत्तर प्राप्त हैं।
विवेचन-लोकव्यवहार में पिता माता आदि प्रामाणिक होते हैं अतः वे लौकिक प्राप्त हैं और मोक्षमार्ग के उपदेश में तीर्थंकर, गणधर आदि प्रामाणिक होते हैं इसलिए वे लोकोत्तर प्राप्त हैं।
मीमांसक लोग सर्वज्ञ नहीं मानते हैं। उनके मत के अनुमार कोई भी पुरुष, कभी भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता । उनसे कोई कहे कि जब सर्वज्ञ नहीं हो सकता तो आपके आगम भी सर्वज्ञोक्त नहीं हैं। फिर उन्हें प्रमाण कैसे माना जाय ? तब वे कहते हैं-"वेद हमारा मूल आगम है और वह न सर्वज्ञोक्त है न असर्वज्ञोक्त है । वह किसी का उपदेश नहीं है, किसी ने उसे बनाया नहीं है। वह अनादिकाल से यों ही चला आ रहा है। इसी कारण वह प्रमाण है।" मीमांसकों के इस मत का विरोध करते हुए यहाँ यह प्रतिपादन किया गया है कि प्राप्तोक्त होने से ही कोई वचन प्रमाण हो सकता है, अन्यथा नहीं।
वचन का लक्षण वर्णपदवाक्यात्मकं वचनम् ॥ ८ ॥