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[तृतीय परिच्छेद
V (१) सबसे पहले साध्य को देखो। साध्य यदि सद्भाव रूप हो तो हेतु को विधिसाधक और अभावरूप हो तो निषेधसाधक समझ लो।
V (२) इसी प्रकार हेतु यदि सद्भाव रूप है तो उसे उपलब्धि समझो और निषेधरूप हो तो अनुपलब्धि समझो ।
। (३) साध्य और हेतु-दोनों यदि सद्भावरूप हों या दोनों अभावरूप हों तो हेतु को 'अविरुद्ध' समझना चाहिए। दोनों में से कोई एक सद्भावरूप हो और एक अभाव रूप हो तो 'विरुद्ध' समझना चाहिए।
V (४) अन्त में साध्य और हेतु का परस्पर कैसा सम्बन्ध है, इसका विचार करो । हेतु यदिसाध्य से उत्पन्न होता है तो कार्य होगा, साध्य को उत्पन्न करता है तो कारण होगा, पूर्वभावी है तो पूर्वचर होगा, बाद में होता है तो उत्तरचर होगा। अगर दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध है तो व्याप्य या व्यापक होगा । दोनों साथ-साथ रहते हों तो सहचर होगा।