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[प्रथम परिच्छेद
अर्थ-जिम पदार्थ के उत्पन्न होने पर कार्य का अवश्य विनाश हो जाता है वह पदार्थ उस कार्य का प्रध्वंसाभाव है।
जैसे-टुकड़ों का समूह उत्पन्न होने पर निश्चित रूप से नष्ट हो जाने वाले घट का प्रध्वंसाभाव टुकड़ों का समूह है॥
इतरेतराभाव का स्वरूप
म्वरूपान्तगत् स्वरूपव्यात्तिरितरतराभावः॥ ६३ ॥ तथा स्तम्भस्वभावात् कुम्भस्वभावव्यावृत्तिः॥ ६४ ॥
अर्थ-एक पर्याय का दूसरी पर्याय में न पाया जाना इतरेतराभाव है।।
जैसे-स्तम्भ का कुम्भ में न पाया जाना। .
विवेचन-स्तम्भ और कुम्भ-दोनों पदार्थ एक साथ सद्भाव रूप हैं. किन्तु स्तम्भ कुम्भ नहीं है और कुम्भ स्तम्भ ही है। इस प्रकार दोनों में परस्पर का अभाव है। यही अभाव इतरेतराभाव, अन्योन्याभाव या परस्पराभाव कहलाता है।
अत्यन्ताभाव का स्वरूप कालत्रयाऽपेक्षिणी तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरत्यन्ताभावः ॥६५॥
यथा चेतनाचेतनयोः ॥ ६६ ॥
अर्थ-त्रिकाल सम्बन्धी तादात्म्य के अभाव को अत्यन्ताभाव कहते हैं।