________________
[ प्रथम परिच्छेद
अर्थ - ( १ ) साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धि, (२) साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धि, (३) साध्याविरुद्ध कारणोपलब्धि ( ४ ) साध्याविरुद्ध पूर्व चरोपलब्धि ( ५ ) साध्याविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि ( ६ ) साध्याविरुद्ध सहचरोपलब्धि; विधिसाधक साध्याविरुद्ध-उपलब्धि के यह छह भेद हैं ।
(५५ )
कारण हेतु का समर्थन
तमस्विन्यामास्वाद्यमानादाम्रादिफलरसादेकसामग्र्यनुमित्या रूपाद्यनुमितिमभिमन्यमानैरभिमतमेव किमपि कारणं हेतुतया; यत्र शक्तेर प्रतिस्खलनमपरकारण साकल्यञ्च ॥ ७० ॥
अर्थ - रात्रि में चूसे जाने वाले आम आदि फल के रस से, उसकी उत्पादक सामग्री का अनुमान करके, फिर उससे रूप आदि का अनुमान मानने वालों ने (बौद्धों ने ) कोई कारण हेतु रूप में स्वीकार किया ही है; जहां हेतु की शक्ति का प्रतिघात न होगया हो और दूसरे सहकारी कारणों की पूर्णता हो ।
विवेचन – बौद्ध, उपलब्धि के स्वभाव और कार्य - यह दो ही भेद मानते हैं, कारण आदि को उन्होंने हेतु नहीं माना । वे कहते हैं - कार्य का कारण के साथ श्रविनाभाव है, कारण का कार्य के साथ नहीं; क्योंकि कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता, पर कारण तो कार्य के बिना भी होता है । अतएव कारण को हेतु नहीं मानना चाहिए ।' बौद्धों के मत का यहाँ खण्डन करने के लिए दो बातें कही गई हैं:( १ ) प्रत्येक कारण हेतु नहीं होता किन्तु जिस कारण का कार्योत्पादक सामर्थ्य मणि-मन्त्र आदि प्रतिबन्धकों द्वारा रुका हुआ