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[प्रथम परिच्छेद
प्रकारान्तर से समर्थन
अन्तर्व्याप्त्या हेतोः साध्यप्रत्यायने शक्तावशक्तौ च बहिर्व्याप्तेरुद्भावनं व्यर्थम् ॥ ३७॥
अर्थ-अन्तर्व्याप्ति द्वारा हेतु से साध्य का ज्ञान हो जाने पर भी या न होने पर भी बहिर्व्याप्ति का कथन करना व्यर्थ है।
विवेचन–अन्तर्व्याप्ति का और बहिर्व्याप्ति का स्वरूप आगे बताया जायगा । इस सूत्र का आशय यह है कि अन्तर्व्याप्ति के द्वारा हेतु यदि साध्य का ज्ञान करा देता है तब बहिर्याप्ति का कथन व्यर्थ है। और अन्याप्ति के द्वारा हेतु यदि साध्य का ज्ञान नहीं कराता तो भी बहिर्याप्ति का कथन व्यर्थ है । तात्पर्य यह है कि बहियाप्ति प्रत्येक दशा में व्यर्थ है।
अन्तर्व्याप्ति और बहियाप्ति का स्वरूप पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः, अन्यत्र तु बहिर्व्याप्तिः ॥ ३८ ॥ ___यथाऽनेकान्तात्मकं वस्तु सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेरिति अग्निमानयं देशो धूमवत्त्वात् , य एवं स एवं, यथा पाकस्थानमिति च ॥ ३९ ॥
अर्थ-पक्ष में ही साधन की साध्य के साथ व्याप्ति होना भन्ताप्ति है और पक्ष के बाहर व्याप्ति होना बहिर्व्याप्ति ॥
जैसे-वस्तु अनेकान्त रूप है, क्योंकि वह सत है, और, यह