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[ प्रथम परिच्छेद
तर्क ज्ञान को अगर प्रमाण न माना जाय तो अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति नहीं हो सकती । तर्क से घूम अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित हो जाने पर ही धूम से अग्नि का अनुमान किया जा सकता है । अतएव अनुमान को प्रमाण मानने वालों को तर्क भी प्रमाण मानना चाहिए ।
अनुमान
अनुमानं द्विप्रकारं – स्वार्थं परार्थश्च ॥ ॥
अर्थ — अनुमान दो प्रकार का है - (१) स्वार्थानुमान और (२) परार्थानुमान
स्वार्थानुमान का स्वरूप
तत्र हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम् ॥१०॥
अर्थ- - हेतु का प्रत्यक्ष होने पर तथा अविनाभाव सम्बन्ध का स्मरण होने पर साध्य का जो ज्ञान होता है वह स्वार्थानुमान कहलाता है ।
विवेचन – जब हेतु (धूम) प्रत्यक्ष से दिखाई देता है और अविनाभाव सम्बन्ध का ( जहाँ धूम होता है वहाँ अनि होती हैइस प्रकार की व्याप्ति का ) स्मरण होता है तब साध्य (अग्नि) का ज्ञान हो जाता है। इसी ज्ञान को अनुमान कहते हैं । यह अनुमान दूसरे के उपदेश के बिना अपने आप ही होता है इस लिए इसे स्वार्थानुमान भी कहते हैं ।
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