________________
(७)
[प्रथम परिच्छेद
संशय-समारोप साधकबाधकप्रमाणाभावादनवस्थितानेककोटिसंस्पर्शि ज्ञानं संशयः ॥११॥ ___ यथा-अयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा ॥१२॥
अर्थ-साधक प्रमाण और बाधक प्रमाण का अभाव होने से, अनिश्चित अनेक अंशों को छूने वाला ज्ञान संशय कहलाता है ।
जैसे—यह ढूंठ है या पुरुष है ?
विवेचन–यहाँ संशय-ज्ञान का स्वरूप और कारण बतलाया गया है । साथ ही उदाहरण का भी उल्लेख कर दिया गया है।
____एक ही वस्तु में अनेक अंशों को स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय है, जैसे लूंठपन और पुरुषपन दो अंश हैं । इस ज्ञान के समय न लूंठ को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण होता है, न पुरुष का निषेध करने वाला ही प्रमाण होता है । ठूठ और पुरुष दोनों में समान रूप से रहने वाली उचाई मात्र मालूम होती है। एक को दूसरे से भिन्न करने वाला कोई विशेष धर्म मालूम नहीं होता।
विपर्यय और संशय का भेद-विपर्यय ज्ञान में एक अंश का ज्ञान होता है, संशय में अनेक अंशों का । विपर्यय में एक अंश निश्चित होता है, संशय में दोनों अंश अनिश्चित होते हैं।
अनध्यवसाय-समारोप किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः ॥१३॥ यथा-गच्छत्तॄणस्पर्शज्ञानम् ॥१४॥