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[ प्रथम परिच्छेद
विवेचन – यहाँ भी स्व-व्यवसाय का दृष्टान्त के साथ समर्थन किया गया है । जो ज्ञान बाह्य पदार्थ - घट आदि को जानता है वही अपने-आपको भी जान लेता है । हमें बाह्य पदार्थ का ज्ञान हो जाय किन्तु यह ज्ञान न हो कि 'हमें बाह्य पदार्थ का ज्ञान हुआ है' ऐसा कभी सम्भव नहीं है । बाह्य पदार्थ के जान लेने को जब तक हम न जान लेंगे तब तक वास्तव में बाह्य पदार्थ का जानना संभव नहीं है । जैसे सूर्य के प्रकाश द्वारा घट आदि पदार्थों को जब हम देख लेते हैं तब सूर्य के प्रकाश को भी अवश्य देखते हैं, उसी प्रकार जब ज्ञान द्वारा किसी पदार्थ को जानते हैं तब ज्ञान को भी अवश्य जानते हैं । जैसे सूर्य के प्रकाश को देखने के लिए दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आव श्यकता नहीं होती । जैसे सूर्य अनदेखा नहीं रहता उसी प्रकार ज्ञान भी अनजाना नहीं रहता ।
प्रमाणता का स्वरूप
ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् । तदितरत्त्व - प्रामाण्यम् || १८ ||
अर्थ - प्रमेय से अव्यभिचारी होना - अर्थात् प्रमेय पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानना, यही ज्ञान की प्रमाणता है ।
इससे विरुद्ध अप्रमाणता है अर्थात् प्रमेय पदार्थ को यथार्थ रूप से न जानना - जैसा नहीं है वैसा जानना - प्रमाणता है ।
विवेचन – जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में जानना ज्ञान की प्रमाणता है और अन्य रूप में जानना अप्रमाणता है । प्रमाणता और प्रमाता का यह भेद बाह्य पदार्थों की अपेक्षा समझना