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प्रमाण-नय-तत्त्वालोक]
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विषय अर्थात् घट आदि पदार्थ और विषयी अर्थात् नेत्र आदि जब योग्य देश में मिलते हैं तब सर्वप्रथम दर्शनोपयोग उत्पन्न होता है । दर्शन महासामान्य अथवा सत्ता को ही जानता है। इसके पश्चात् उपयोग कुछ आगे की ओर बढ़ता है और वह मनुष्यत्व आदि अवान्तरसामान्य युक्त वस्तु को जान लेता है । यह अवान्तर सामान्य युक्त वस्तु अर्थात् मनुष्यत्व आदि का ज्ञान ही अवग्रह कहलाता है।
ज्ञान की यह धारा उत्तरोत्तर विशेष की ओर झुकती जाती है, जैसा कि अगले सूत्रों से ज्ञात होगा। ....
ईहा का स्वरूप अवगृहीतार्थविशेषाकांक्षणमीहा ॥ ८ ॥
अर्थ-अवग्रह से जाने हुये पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है।
विवेचन-'यह मनुष्य है' ऐसा अवग्रह ज्ञान से जान पाया था । इससे भी अधिक 'यह दक्षिणी है या पूर्वी' इस प्रकार विशेष को जानने की इच्छा होना ईहा ज्ञान कहलाता है। ईहा ज्ञान 'यह दक्षिणी होना चाहिये यहाँ तक पहुँच पाता है।
अवाय का स्वरूप ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः॥ ६ ॥
अर्थ-ईहा द्वारा जाने हुये पदार्थ में विशेष का निर्णय हो जाना अवाय है।
विवेचन-'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिये' इतना ज्ञान ईहा