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[ प्रथम परिच्छेद
विवेचन - यहाँ अवधिज्ञान का स्वरूप बताते हुए उसके उत्पादक कारण और उसके विषय का उल्लेख किया गया है ।
(२५)
अवधिज्ञान के उत्पादक दो कारण हैं-- अन्तरंग कारण और बहिरंग कारण | अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है और देवभव और नरकभव या तपश्चरण आदि गुण बहिरंग कारण हैं । देवभव या नरकभव से जो अवधिज्ञान होता है उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं और तपश्चर्या आदि से होने वाला अवधिज्ञान गुणप्रत्यय कहलाता है । दोनों प्रकार के इन ज्ञानों में अन्तरंग कारण समान रूप से होता है । देवों और नारकी जीवों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है और मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। मगर सब देवों और नारकों के समान सब मनुष्यों और तिर्यञ्चों को यह ज्ञान नहीं होता ।
अवधिज्ञान सिर्फ रूपी पदार्थों को जानता है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाले पदार्थ को रूपी कहते हैं । केवल पुद्गल द्रव्य ही रूप है ।
मनः पर्याय ज्ञान का स्वरूप
संयमविशुद्धिनिबन्धनाद्, विशिष्टावरणविच्छेदाज्जातं, मनोद्रव्यपर्यायालम्बनं मनःपर्यायज्ञानम् ||२२||
श्रर्थ - जो ज्ञान संयम की विशिष्ट शुद्धि से उत्पन्न होता है, तथा मनःपर्याय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और मन सम्बन्धी बात को जान लेता है उसे मनःपर्याय ज्ञान कहते हैं ।
विवेचन - संयम की विशुद्धता
मनःपर्यायज्ञान का बहिरंग