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[ प्रथम परिच्छेद
अर्थ-कहीं क्रम मालूम नहीं पड़ता क्योंकि यह सब ज्ञान शीघ्र ही उत्पन्न हो जाते हैं; कमल के सौ पत्तों को छेदने की तरह ।
विवेचन-जो वस्तु अत्यन्त परिचित होती है उसमें पहले दर्शन हुआ, फिर अवग्रह हुआ, इत्यादि क्रम का अनुभव नहीं होता। इसका कारण यह नहीं है कि वहाँ दर्शन आदि के बिना ही सीधा अवाय या धारणा ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। वहाँ पर भी पूर्वोक्त क्रम से ही ज्ञानों की उत्पत्ति होती है किन्तु प्रगाढ़ परिचय के कारण वह सब बहुत शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं। इसी कारण क्रम का अनुभव नहीं होता। एक दूसरे के ऊपर कमल के सौ पत्ते रखकर उनमें नुकीला भाला घुसेड़ा जाय तो वे सब पत्ते क्रम से ही छिदेंगे पर यह मालूम नहीं पड़ पाता कि भाला कब पहले पत्ते में घुसा, कब उससे बाहर निकला, कब दूसरे पत्ते में घुसा आदि। इसका कारण शीघ्रता ही है। जब भाले का वेग इतना तीव्र हो सकता है तो ज्ञान जैसे सूक्ष्मतर पदार्थ का वेग उससे भी अधिक तीव्र क्यों न होगा ?
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम् ॥१८॥
अर्थ-जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
. विवेचन–पारमार्थिक प्रत्यक्ष अर्थात् वास्तविक प्रत्यक्ष । यह प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की भाँति इन्द्रियों और मन से उत्पन्न नहीं होता किन्तु आत्म-स्वरूप से उत्पन्न होता है। इसी कारण इसे मुख्य प्रत्यक्ष भी कहते हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने के कारण वस्तुतः परोक्ष है किन्तु लोक में वह प्रत्यक्ष