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[प्रथम परिच्छेद
___ जब कोई वस्तु बार-बार के परिचय से अभ्यस्त हो जाती है तो उस वस्तु का ज्ञान होते ही उस ज्ञान की प्रमाणता (सचाई ) का भी निश्चय हो जाता है । जैसे-गुरु अपने शिष्य को प्रतिदिन देखता है। इस अभ्यास-दशा में शिष्य का प्रत्यक्ष होते ही गुरु को अपने शिष्य विषयक ज्ञान की प्रमाणता का भी निश्चय हो जाता है। शिष्य को देख कर गुरु यह नहीं सोचता कि मुझे अपने शिष्य का ज्ञान हो रहा है सो यह ज्ञान प्रमाण है या नहीं ? इसी को अभ्यास दशा में स्वतः ज्ञप्ति हो जाना कहते हैं।
जब कोई वस्तु अपरिचित होती है तब उसका ज्ञान हो जाने पर भी उस ज्ञान की प्रमाणता (सचाई) का निश्चय तत्काल नहीं हो जाता। वह सोचने लगता है-मुझे अमुक वस्तु का ज्ञान हुआ है पर न जाने यह ज्ञान सच्चा है या मिथ्या ? इसके बाद उस ज्ञान को पुष्ट करने वाला कारण अगर मिल जाता है तो उसे अपने ज्ञान की प्रमाणता का निश्चय हो जाता है; इसी को अनभ्यास दशा में परतः ज्ञप्ति ( निश्चय ) कहते हैं। इसके विपरीत यदि ज्ञान को मिथ्या सिद्ध करने वाला कोई कारण मिल जाता है तो वह पुरुष अपने ज्ञान की अप्रमाणता का निश्चय कर लेता है।
यहाँ सामान्य ज्ञान हो जाने पर भी उस ज्ञान की प्रमाणता और अप्रमाणता का निश्चय दूसरे कारण से होता है। अतएव अनभ्यास दशा में प्रमाणता और अप्रमाणता का निश्चय परतः बतलाया गया है। - मीमांसक लोग प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वतः ही मानते हैं और अप्रामाण्य की उत्पत्ति तथा ज्ञप्ति परतः ही मानते हैं। प्रकृत सूत्र में उनके मत का निरसन किया गया है।