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* प्राकृत व्याकरण 00000000torsorroreporter000000000rder.0000000000rsnstreasonsorssosort
रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेम्मस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
उपकुम्भम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवकुम्मस्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'क' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-१३४ से संस्कृतीय द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृस में षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति तदनुसार ३-२० से संस्कृतोय द्वितीया विभक्ति के प्रत्यय 'अम्म्म्' के स्थान पर प्राकृत में पष्ठी विमक्ति वाचक प्रत्यय 'रस' की प्राप्ति होकर उपकुम्भस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
शैत्यम शीतलस्वम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप साअलत्तर्ण होता है। इसमें सूत्र-पंख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' को प्राप्तिः १-१७७ से 'त' का लोप; २-१५४ से 'स्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'त्तण' प्रश्यय की प्रादेश प्राप्ति ३.५ से द्वितोया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर सीमलत्तणे रूप सिद्ध हो जाता है ॥३-१८||
डे म्मि ङः ॥३.११॥ अतः परस्य डि. एकारः संयुक्तो मिश्च भवति ।। वच्छे । वच्चम्मि ॥ देवम् । देवम्मि । वम् । तम्मि | पल द्वितीया- जुटीयोः माझी (३-१२५ एमो डिः॥
अर्थः-प्राकृत अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में संस्छनीय प्रत्यय 'ङिइ' के 'थान पर 'डे और संयुक्त ‘म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'इ' इत्संज्ञक होने से मूल अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर उक्त 'अ' का लोप हो जाता है; तत्पश्चात प्राप्त हलन्त रूप में 'ए' प्रत्यय की सयोजना हो जाती है। जैसे ---वृक्षयच्छे और वच्छम्मि अर्थात वृक्ष में । सूत्र-संख्या ३-१३७ में एसा विधान है कि प्राकृतीय शब्दों में कभी कभी सप्तमी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययों का विधान होता हुया भी देखा जाता है एवं उत्त विधानानुसार प्राप्त द्वितीया-विभक्ति के सद्भाव में भो तात्पर्य सप्तमी विभक्ति का ही अभिव्यक्त होता है। जैसे:-देव-देवम् अथवा देवम्मि अर्थात देवता में । तस्मिन् - तम् अथवा तम्मि अर्थात उसमें । कभी कमी ऐसा भी होता है कि शब्द में द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति के अर्थ में सूत्र-संख्या ३-१३५ के अनुसार सप्तमी विभक्ति के प्रत्यय संयोजित होते हुए देखे जाते हैं और तात्पयं द्वितीया अथवा तृतीया विमक्ति को अभिव्यक्त होता है। तदनुसार सप्तमी-विभक्ति वाचक '
डिइ' होने पर भी उसका अथं द्वितीया-विभक्ति-वाचक प्रत्यय 'अम्-म' के अनुसार होता है।
_वृक्षे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप वच्छे और पच्छम्मि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसारः ३-११ से सक्षमी विभक्ति के एक वचन में क्रम से 'ए' और 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऋम से पच्छे और पच्छम्मि रूप सिद्ध हो जाते हैं।