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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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होते हैं; जो कि इस प्रकार है: - धूतेभ्यः = (१) बच्छतो, (२) वाओ, (३) बच्छाउ, (४) वाहि, (५) वच्छे[ह. (६) वच्छाहिन्तो, (s) व हिन्सो, (८) वच्छासुन्तो और (६) बच्छेन्तो अर्थात् वृक्षों से ॥
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'वृक्षेभ्यः – संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप बच्छत्तो. वच्छात्रो, वare, बाहि छो, बच्छा हिन्तो, वच्छेोहिन्तो वच्छासुन्तो और वच्छेसुन्तो होते हैं। इनमे 'बच्छ' रूपं तक को साधनिका सूत्र - संख्या ३-४ के अनुसार ३९ से प्रथम रूप में 'तो' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'तो' के पूर्वस्थ व शब्दान्त्य 'च' के स्थान पर 'आ' को प्राप्तिः १-८४ से प्राप्त 'आ' के स्थान
घर पुनः 'अ' को प्राप्ति होकर प्रथम रूप वच्छत्तो सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय और तृतीय रूप- (बाओ एवं बच्छाउ ) में सूत्र- संख्या ३-१२ से बच्छ शब्दान्त्य 'ब' के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति ३-६ से क्रम से 'दो' और 'दु' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-१७० से प्राप्त प्रत्ययों में स्थित दु' का लोप होकर क्रम से बच्छाओं और बच्छाउ रूपों की सिद्धि हो जाती है।
शेष चौथे रूप से लगाकर नबवें रूप तक में सूत्र संख्या ३-१३ से तथा ३- १५ से बच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'श्री' अथवा 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से कम से 'हि ""हतो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों को प्राप्ति होकर यथा रूप बच्छाहि, षच्छेहि, वच्छाहिन्तो, वच्छेद्दिन्ती vergent और पच्छे सुन्ती रूपों को सिद्धि हो जाती है ||३६||
इसः स्सः ॥३ - १० ॥
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श्रतः परस्य यः संयुक्तः सो भवति ॥ पिञ्चस्स | बेम्मस्स | उपकुम्भं शैत्यम् । उबकुम्भस्स सील
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अर्थः- अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'स' के स्थानीय रूप स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'रूप' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- प्रियश्च = विश्वस्व अर्थात् प्रिय का । प्रेमरपुः = पेम्सस्स अर्थात् प्रेम का और उपकुम्भ शैत्यम् = वकुम्भस्त सील
अर्थात् गूगल नामक लघु वृक्ष विशेष की शीतलता को (देखो ) ।
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प्रियस्स – संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या २०५६ से 'र्' का लाभ १ ९७७ से 'य्' का लोप और ३-१० से पष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीव प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हम' पत्मय की आदेश प्राप्ति होकर पिअस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रेमप्पः संस्कृत पन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप पेस्मरल होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'ब' का लाभ; २-६८ से 'म' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति २८ से मूल संस्कृतीय रूप 'प्रेसन' में स्थित ('णू' के पूर्व रूप) 'न' का लोप, और ३-६० से संस्कृतोब घष्टो त्रिभक्ति वाचक प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय