Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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4 : प्राकृत व्याकरण प्रत्यय 'भिस्' के स्थानीय रूप 'ऐस्' के स्थान पर प्राकृत के क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'हि', 'हिँ', 'हिं' प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि' अथवा 'हिँ' और 'हिं' के पूर्वस्थ 'वच्छ' शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से 'वच्छेहि' 'वच्छेहिँ' और 'वच्छेहि' रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'कया' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई है। 'छाही' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-१-२४९ में की गई है ।।३-७।।
ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ॥३-८।। अतः परस्य उसेः तो दो दु हि हिन्तो लुक् इत्येते षडादेशाः भवन्ति । वच्छत्तो। वच्छाओ। वच्छाउ । वच्छाहि । वच्छाहिन्तो। वच्छा ।। दकार करणं भाषान्तरार्थम् ।।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'आत्' के स्थान पर प्राकृत में 'तो', 'दो ओ; 'दु=उ', 'हि' और 'हिन्तो' प्रत्यय क्रमशः आदेश रूप में प्राप्त होते हैं और कभी-कभी इन प्रत्ययों का लोप भी हो जाता है; ऐसी अवस्था में मूल शब्दरूप के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१२ से 'आ' की प्राप्ति होकर प्राप्त रूप पंचमी-विभक्ति के अर्थ को प्रदर्शित कर देता है। यों पंचमी-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में छह रूप हो जाते हैं। पाँच रूप तो प्रत्यय-जनित के होते हैं और छठा रूप प्रत्यय-लोप से होता है। इन छह ही रूपों में सूत्र-संख्या ३-१२ से प्रत्ययों की क्रमिक रूप से संयोजना होने के पहले शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति हो जाती है। 'तो' प्रत्यय की संयोजना में अके स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर पुनः सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' हो जाया करता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- वृक्षात्-वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो और वच्छा अर्थात् वृक्ष से। 'दो' और 'दु' प्रत्ययों में स्थित 'दकार' अन्य भाषा 'शौरसेनी' के पंचमी विभक्ति के एकवचन की स्थिति को प्रदर्शित करने के लिये व्यक्त किया गया है: तदनुसार प्राकृत में स्वभावतः अथवा सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप करके शेष 'ओ' और 'उ' प्रत्ययों की ही प्राकृत-रूपों में संयोजना की जाती है। यह अन्तर अथवा विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये। _वृक्षात्:- संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो
और वच्छा होते हैं इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार; ३-१२ से प्राप्त रूप 'वच्छ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ओ' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में क्रम से 'त्तो', 'ओ', 'उ', 'हि', 'हिन्तो' और 'प्रत्यय-लोप' की प्राप्ति होकर क्रम से वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्ता और वच्छा रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रथम रूप 'वच्छत्तो' में यह विशेषता है कि उपर्युक्त रीति से प्राप्तव्य रूप 'वच्छात्तो' से सूत्र-संख्या १-८४ से पुनः दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर 'वच्छत्तो रूप (ही) सिद्ध होता है ।।३-८||
भ्यसस् त्तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो ॥३-९।। अतः परस्य भ्यसः स्थाने तो दो, दु, हि, हिन्तो, सुन्तो इत्यादेशाः भवन्ति। वृक्षेभ्यः। वच्छत्तो। वच्छाओ। वच्छाउ। वच्छाहि। वच्छेहि। वच्छाहिन्तो। वच्छेहिन्तो वच्छासुन्तो। वच्छेसुन्तो।।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय भ्यस् भ्यः के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो'; 'दो-ओ'; 'हि'; "हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ३-१२ से 'तो' प्रत्यय, 'ओ' प्रत्यय.और 'उ' प्रत्यय के पूर्व शब्दान्त्य हस्व-स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होती है। 'त्तो' प्रत्यय की संयोजना में यह विशेषता है कि 'आ' की प्राप्ति होने पर पुनः सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' हो जाता है। इसी प्रकार से 'हि','हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों के संबंध में यह विधान है कि सूत्र-संख्या ३-१३ से शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर कभी 'आ' की प्राप्ति होती है तो कभी सूत्र-संख्या ३-१५ से 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हो
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