Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 3 वृक्षान्ः- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छे' होता है। इसमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि उपर्युक्त सभी इसी सूत्र के अनुसार (जानना) चाहिए; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप और ३-१४ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'वच्छे' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।३-४।।
अमोस्य ।।३-५॥
अतः परस्यामोकारस्य लुग् भवति ।।वच्छं पेच्छ।। अर्थः- अकारान्त में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' का प्राकृत में लोप हो जाता है और शेष 'म्' प्रत्यय की ही प्राकृत में प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षम् पश्य-वच्छं पेच्छ अर्थात् वृक्ष को
देखो।
'वच्छं':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'पेच्छ':- क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।।३-५।।
टा-आमोर्णः ॥३-६।। अतः परस्य टा इत्येतस्य षष्ठी-बहुवचनस्य च आमो णो भवति ॥वच्छेण। वच्छाण।। ___ अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है एवं सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षण-वच्छेण।
इसी प्रकार से अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है एवं सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षानाम्-वच्छाण अर्थात् वृक्षों का अथवा वृक्षों की। 'वच्छेण रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है।
वृक्षानाम- संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छाण' होता है। इसमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार (जानना); ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ-स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'वच्छाण' रूप सिद्ध हो जाता है।।३-६।।
भिसो हि हिँ हिं॥३-७॥ अतः परस्य भिसः स्थाने केवलः सानुनासिकः सानुस्वारश्च हिर्भवति ॥ वच्छेहि। वच्छेहिँ वच्छेहिं कया छाही। ___ अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में कभी केवल 'हि' प्रत्यय आदेश रूप में प्राप्त होता है; कभी सानुनासिक 'हिँ प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; तो कभी सानुस्वार "हिं प्रत्यय का आदेश हुआ करता है; एवं सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि', 'हिँ', 'हिं' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृक्षः कृता छाया-वच्छेहि अथवा वच्छेहिँ अथवा वच्छेहिं कया छाही अर्थात् वृक्षों द्वारा की हुई छाया।।
वृक्षैः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वच्छेहि', 'वच्छेहिँ और 'वच्छेहिं होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार (जानना); ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत
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