Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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2 : प्राकृत व्याकरण
अतः से?ः ॥३-२॥ अकारान्तानाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति ।। वच्छो।।
अर्थः- प्राकृत पुल्लिंग अकारांत शब्दों में प्रथमा विभक्ति में संस्कृत प्रथमा विभक्ति वाचक प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डो' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डो' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से अकारान्त प्राकृत शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस अन्त्य 'अ' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त शब्द में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षः-वच्छो।। 'वच्छो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१७ में की गई है ।।३-२।।
वैतत्तदः ॥३-३॥ एतत्तदोकारात्परस्य स्यादेः से? वा भवति ।। एसो एस। सो णरो। स णरो।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम रूप 'एतत्' और 'तत्' के पुल्लिंग रूप 'एषः' और 'सः' के प्राकृत पुल्लिंग रूप 'एस' और 'स' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'डो-ओ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे:- एषः-एसो अथवा एस। सः नरः-सो णरो अथवा स णरो।।
"एसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११६ में की गई है। 'एस' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। 'सो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। 'णरो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२२९ में की गई है। 'स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है।।३-३।।
जस्-शसोलुंक् ।।३-४॥ अकारान्तानाम्नः परयोः स्यादिसंबन्धिनो र्जस-शसोलुंग् भवति।। वच्छा एए वच्छे पेच्छ।।
अर्थः-अकारान्त प्राकृत पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में क्रम से संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' का लोप हो जाता है। इस प्रकार प्रथमा विभक्ति में 'जस्' प्रत्यय का लोप हो जाने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसेः- वृक्षाः एते-वच्छा एए। इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति में भी 'शस्' प्रत्यय का लोप हो जाने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है एवं कभी सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे वृक्षान् पश्य-(वच्छा अथवा) वच्छे पेच्छ अर्थात् वृक्षों को देखो। __'वृक्षाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व "छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति: ३-४ से प्रथमा विभक्ति में अकारान्त पल्लिग के बहवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'वच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
एतेः- संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एए' होता है, इसमें सूत्र-संख्या १–१७७ से 'त' का लोप होकर 'एए' रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतत्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'त' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय डे में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त रूप 'एअ' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा
होकर इस 'अ' का लोप और तत्पश्चात् प्राप्त रूप 'ए+ए=एए' की सिद्धि हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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