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१६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन भूमि का स्वामित्व
प्राचीनकाल में भूमि स्वामित्व के प्रश्न को लेकर बड़ा मतभेद है ।। उपलब्ध तथ्यों के आधार पर भूमि पर तीन प्रकार का अधिकार परिलक्षित होता है
( १ ) राज्य का स्वामित्व, (२) व्यक्तिगत स्वामित्व,
( ३ ) सामूहिक स्वामित्व । राज्य का स्वामित्व
बृहत्कल्पभाष्य में राजा को पृथ्वी का स्वामी कहा गया है ।' कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार भूमि राज्य की सम्पदा थी। यूनानी यात्री मैगस्थनीज के यात्रावृत्तान्त से भी इस बात की पुष्टि होती है । कौटिल्य के अनुसार जो भूमि राज्याधिकारियों को वेतन स्वरूप दी जाती थी मात्र उसकी आय का ही वे उपभोग कर सकते थे, उसका विक्रय और उसे बन्धक रखना उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर था । राजा से दान में प्राप्त भूमि की मात्र आय के उपभोग का ही अधिकार बाह्मणों, उच्चाधिकारियों और बौद्ध संघों को था, विक्रय करने का नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि वे दान में प्राप्त भूमि के स्वामी नहीं होते थे। फलतः मौर्यकाल और गुप्तकाल में किसी न किसी रूप में राजा का हो भूमि पर अधिकार होता था । कौटिलीय अर्थशास्त्र में वनों, खनिज पदार्थों और भूमिस्थ निधि पर राजा का अधिकार बताया गया है। निशीथचूणि से भी ज्ञात होता है कि उस काल तक भी भूमिस्थ निधि पर राजा का ही अधिकार था ।
१. बृहकल्पभाष्य, ४/३७५७. २. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/१/१९. ३. रेपसन ई० जे० : द कैम्बिज हिस्ट्रो आफ इण्डिया द्वितीय भाग, पृ. ३६८. ४. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २ १/१९. ५. प्रवरसेन का चमकपुर ताम्र लेख; फ्लीट, जान फेथफुल भारतीय-अभिलेख
संग्रह पृ० २९७. ६. कौटिलीय अर्थशास्त्र, ४/१/७६, ७. एक्केणं वणिएणं णिहि उक्खणियो तं अण्णेहि णाउ रण्णो णिवेइयं वणिओ.
दडिओ णिहीय से हड़ो, निशीथचूर्णि, ४/६५२२.