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चतुर्थ अध्याय : ७९ क्षिणावर्त निधि ) में सोना, चाँदी, लोहा, मणि, मक्ता, स्फटिक आदि का शोधन होता था, आठवीं णेसप्प ( नैसर्प निधि ) में नगर के पथ, सेतु, भवन आदि का निर्माण किया जाता था और नवीं संख (शंख निधि) में अन्तःपुर सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था की जाती थी। डॉ० नेमिचन्द्र ने इन निधियों की तुलना आधुनिक उद्योगशालाओं से की है।'
प्रमुख उद्योग १-वस्त्र-उद्योग
विभिन्न प्रकार के वस्त्रों और उन पर किये गये चित्रांकन के सन्दर्भो से स्पष्ट होता है कि आगमिक काल में वस्त्र-उद्योग अत्यन्त उन्नत अवस्था में था । ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि सुन्दर, सुकोमल और पारदर्शी वस्त्रों का निर्माण होता था। वस्त्र इतने हल्के होते थे कि नासिका के उच्छवास से भी उड जाते थे। इन वस्त्रों पर स्वर्ण और रजत के तारों से भाँति-भाँति की आकृतियाँ बनायी जाती थीं। मेघकुमार को माता रानी धारणी के उत्तरीय के किनारों पर सोने के तार से हंस बनाए गए थे।३ आचारांग में भी स्वर्ण-खचित वस्त्रों का उल्लेख हुआ है। जैन साहित्य में चार प्रकार के उपकरणों से बने वस्त्रों के उल्लेख मिलते हैं । आचारांग में पाँच प्रकार के वस्त्र-जंगिय (ऊनी वस्त्र), भंगिय (रेशमी वस्त्र), सणिय (सन अथवा वल्कल से बने वस्त्र) पोतग (ताड़पत्र के रेशों से बने वस्त्र), खोमिय (तूलकण, कपास और ओक के डोडों से बने वस्त्र) का उल्लेख मिलता है। जिन्हें जैन साधु धारण कर सकते थे। दूसरे बहुमूल्य वस्त्रों के उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि समाज में सूती, रेशमी, ऊनी और चर्म-वस्त्रों का प्रचलन था।
१. जैन, नेमिचन्द्र--तीर्थङ्कर महावीर और आचार्य परम्परा, पृष्ठ ५२ २. नास तीसासवायवोज्जं चक्खुहरं कणफरिसजुत्तं ह्यलालपेलवातिरेगं __ धवलं कणगखचियंतकम्मं दुगूलसुकुमाल्वउत्तरिज्याओ।
ज्ञिाताधर्मकथांग १/३३; भगवती ९/३३/५७ ३. वही ४. आचारांग ५. “जगिय वा भंगिय वा सणियं वा पोतगं वा खोमिय वा चूलकड़वा"
आचारांग २/५/१/१४१