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पंचम अध्याय : ११७
हुआ है जिसने व्यापार के लिये अपना सार्थं ले जाते हये यह घोषणा की थी कि धन्ना सार्थवाह अपना सार्थ अहिच्छत्र ले जा रहा है। अतः जो कोई भी उसके सार्थ में जाने का इच्छुक हो उसकी वह सब प्रकार से सहायता करेगा। आवश्यकतानुसार वह सभी को भोजन, वस्त्र, औषधि, वस्त्र, जूता एवं वाहन उपलब्ध करायेगा।' आवश्यकचूर्णि में भी एक ऐसे ही सार्थवाह का उल्लेख हुआ है जो सहयात्रियों को भोजन, वस्त्र, औषधि आदि निःशुल्क देता था ।२ व्यापारिक यात्रा आरम्भ करने से पूर्व व्यापारी को अपने राजा से अनुमति लेनी पड़ती थी। जिस देश से व्यापार किया जाता था उस देश के राजा से भी व्यापार की अनुमति लेकर शुल्क देना पड़ता था। कभी-कभी राजा प्रसन्न होकर व्यापारी को शुल्क-मुक्ति भी प्रदान कर दिया करते थे। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि चम्पा नगरी के पोतवणिक अरहन्नक ने मिथिला पहुँच कर वहाँ के राजा को उपहार में रत्न और कुडल दिये तथा व्यापार हेतु अनुमति मांगी। राजा ने भेंट स्वीकार कर ली एवं प्रसन्न होकर उसे शुल्कमुक्त करते हुये व्यापार के लिये आज्ञा दे दी।५ व्यापारी दूसरे देशों में अपने माल के विक्रय से प्राप्त धन से वहाँ निर्मित विविध वस्तुओं का क्रय करके और फिर उनको अपने देश में लाकर विक्रय करते थे। इससे प्रतीत होता है कि व्यापारी दोनों देशों की वस्तुओं का क्रय-विक्रय करके अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे ।
समाज में ऐसी धारणा थी कि समुद्रयात्रा से अधिक धन अजित किया जा सकता है। इसलिये भारतीय व्यापारी कठिनाइयों का सामना
१. वही १५/६ २. आवश्यक चूणि भाग १ पृ० ११५ ३. आवश्यकचूणि भाग १५ पृ० १९ ४. 'कणगकेऊ राया हद्दतुठे घण्णस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं महग्धं महरिहं
जाव पाहुडं पडिच्छइ, पडिच्छिता धणं सत्यवाहं सक्कारेइ सम्माणेइ उस्सुक्कं वियरइ"
ज्ञाताधर्मकथांग, १५/१९ ५. वही ८/८१-८३ ६. वही ८/८४ ७. हरिभद्रसूरि-समराइच्चकहा ४/२४५