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१७२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
और राजा ने उन्हें व्यापार की अनुमति दी तथा पण्यवस्तुओं को शुल्क मुक्त कर दिया ।
वर्तनीकर- - आवागमन की सुविधा हेतु राज्य की ओर से सड़कों, घाटों और नावों की व्यवस्था की जाती थी जिसके लिये राज्य व्यापारियों और यात्रियों से कर लेता था । बृहत्कल्पभाष्य से ज्ञात होता है कि मार्गों पर 'वर्तनी' कर लिया जाता था । कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी सीमा-रक्षक और अन्तपाल द्वारा 'वर्तनी' कर लेने का उल्लेख है । बृहत्कल्पभाष्य में वर्तनी कर किस दर से लिया जाता था इसका उल्लेख नहीं है जबकि कौटिलीय अर्थशास्त्र में स्पष्ट उल्लेख है कि बिक्री का माल ढोने वाली गाड़ी से पण, घोड़े, खच्चर, गधे आदि से माल ढोने वाले से १/२ पण, बकरी और क्षुद्र पशुओं का १/४ पण और कंधे पर माल ढोने वाले यात्री से १ माष 'वर्तनी' कर किया जाना चाहिये । ४ जैनग्रन्थों में वर्णन है कि नदी आदि पार करने के लिये भी शुल्क देना पड़ता था जिसे 'तरदेय' या 'तरपण' कहा जाता था । कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी नौकाओं और घाटों से प्राप्त होने वाले "तरदेय" का उल्लेख है ।" मनुस्मृति के अनुसार नौका किराया नदी के वेग, स्थिरता, अनुकूल, प्रतिकूल प्रवाह, समय, दूरी आदि देखकर तय किया जाता था । कौटिल्य ने नौका के भाड़े की दर का भी उल्लेख किया है - भेड़, बकरी आदि छोटे पशुओं तथा हाथ में ग्रहण करने योग्य भार लिये हुए मनुष्य से १ माषक, गाय, घोड़े तथा सिर पर बोझ रखे हुये मनुष्य से २ माषक, ऊँट और भैंसे से ४ माषक, शकट अथवा भारी गाड़ी से ७ माषक, व्यापारिक सामग्री के एक
१. कुंभए राया ते अरहन्तगपम ेक्खे नावावणिगये विडले यत्थगंधजाव उन्मुक्कं विरइ । ज्ञाताधर्मकथांग, ४।४३.
२. बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, गाथा ७८९.
३. ' अन्तपालः सपादपणिकां वर्तनीगृहणीयात्पण्य वाहनस्य, पणिकामेकखुरस्यपशूनामर्धपणिकां क्षुद्रपशूनाम् पादिकामं सभारस्य माषिकान्', कौटिलीय अर्थशास्त्र, २ /१७/३४.
४. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ५, गाथा ५६३०; आवश्यकचूर्णि भाग १, पृ० २९८; 'तेरण्णे चं मग्गेज्जा' निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ४२२०
कौटिलीय अर्थशास्त्र, २।१७।३४
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६. मनुस्मृति, ४।४०७