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उपसंहार : १९९ लिए आज की तरह बैंकों की व्यवस्था तो नहीं थी पर समाज के सम्पन्नजन जैसे श्रेष्ठी, गाथापति, सार्थवाह, शिल्पियों तथा व्यापारियों के संगठन उत्पादन के लिये व्याज पर ऋण प्रदान करते थे । पूँजीपति दूरदर्शिता के साथ अपने धन का सुनियोजित विभाजन करके उसका चतुर्थांश, व्यापार में घाटे आदि जैसे दुर्दिन की आशंका से सुरक्षित निधि के रूप में रख लेते थे। आर्थिक उत्पादन में प्रबन्ध का सबसे अधिक महत्त्व था । भमि, श्रम तथा पूँजी के उपलब्ध होने पर भी यह आवश्यक नहीं था कि उत्पादन व्यवस्थित हो इसलिए श्रेष्ठी, सार्थवाह और गाथापति भूमि, श्रम और पूंजी की समुचित व्यवस्था करके उत्पादन करते थे । वे उत्पादन मात्र से ही सन्तुष्ट नहीं हो पाते थे, वरन् वास्तविक लागत पर माँग और पूर्ति को ध्यान में रखते हुए कम से कम व्यय करके अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे।
समाज में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के व्यवसाय प्रचलित थे परन्तु आसकदशांग में १५ निषिद्ध कदिानों अर्थात् व्यवसायों को सूची से स्पष्ट होता है कि अहिंसा-प्रधान होने के कारण जैन परम्परा उन व्यवसायों की स्वीकृति नहीं देती थी, जो हिंसक, अहितकर या किसी भी रूप में समाज विरुद्ध थे। इसके विपरीत हिंसा और शोषण से रहित मनुष्य के परिश्रम पर आधारित व्यवसायों जैसे कृषि, पशुपालन, विद्या, व्यापार और शिल्प को समाज सम्मत और प्रतिष्ठित मानती थी। अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित थी। अहिंसा प्रधान होते हुए भी जैन परम्परा में कृषि कर्म प्रशस्त माना जाता था। कृषकों ने कृषि में इतनी उन्नति कर ली थी कि वे उपज के भण्डारण हेतु वैज्ञानिक पद्धति अपनाते थे और धान्यों को अंकुरण क्षमता दीर्घकाल तक बनाये रखते थे। साधनों के सीमित होने के कारण कृषक बड़े तो नहीं पर छोटे-छोटे भण्डारगृहों का निर्माण करते थे जिसका लाभ निर्धन किसान भी उठाते थे। दूसरे भण्डार-गृहों थोड़ी-थोड़ी दूर पर होने से परिवहन के साधनों पर निर्भरता भी कम होती थी।
पशुधन की महत्ता को देखते हुए उनके खाने-पीने के प्रबन्ध से लेकर उनको क्षति पहुँचाने वालों के विरुद्ध विधानों तक का उल्लेख किया गया है। पशुधन जहाँ समृद्धि का द्योतक है वहीं लोगों को आजीविका देने की दृष्टि से भी इसकी बड़ी उपयोगिता थी। उपवन-उद्यान और वाटिका