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उपसहार : २०१
दण्डनीय माने जाने पर भी आज की भाँति ही वणिक वस्तु को कम मापने, उसमें मिलावट करने और करों की चोरी करने से अपने को रोक नहीं पाते थे। व्यापार और व्यवसाय की शुद्धता बनाये रखने के लिये जैनग्रन्थों में अस्तेय व्रत का प्रतिपादन किया गया है। जिसका पालन करने पर व्यापारी बेईमानी और चोरी से दूर रहते थे। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि आयातित वस्तुओं पर आयात शुल्क देने का प्रावधान था। किन्तु निर्यात शुल्क का कहीं उल्लेख नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहित और आयात को हतोत्साहित किया जाता था। भारतीय व्यापारी भारत से बाहर दूरस्थ देशों यथा चीन देश, हूणदेश, खसदेश, कमलद्वीप, सुवर्णद्वीप, रत्नद्वीप आदि में व्यापारार्थ जाते थे।
यद्यपि प्राचीन जैन ग्रन्थों के काल में यातायात के साधन आज की तरह विकसित नहीं थे फिर भी देश के विभिन्न व्यापारिक केन्द्र जलस्थल मार्गों से परस्पर जुड़े हये थे, स्थल मार्गो के लिये रथ, शकट, हाथी, घोड़े, ऊँट आदि वाहन थे और जलमार्गों के लिये कई प्रकार की जहाज जैसी बड़ो और छोटी पोत, प्रवहन, वाहन तथा कुंज, दत्ति, पणि जैसी छोटी नौकाएँ थीं। भाष्यों तथा चुणियों में सर्वत्र सोने-चाँदी और ताँबे के सिक्कों के उल्लेख गुप्तकाल की समृद्ध आर्थिक स्थिति को व्यक्त करते हैं। खाने-पीने और साधारण आवश्यकता की वस्तुएँ सस्ती होने के कारण दैनिक व्यवहार में कौड़ियों और तांबे के सिक्कों का प्रयोग होता था और उनसे अधिक मूल्यवान सोने-चांदी के सिक्कों की क्रयशक्ति अधिक होने के कारण उन सिक्कों का कम प्रयोग होता था और उनका उपयोग भूमि के क्रय-विक्रय तथा विदेशी व्यापार में किया जाता था।
ईसा को प्रारम्भिक शताब्दियों में राष्ट्रीय आय के वितरण में 'विषमता दिखाई पड़ती है । आय का अधिक अंश समाज के एक सीमित वर्ग के पास ही था जिसमें बड़े-बड़े गाथापति, सार्थवाह और श्रेष्ठी सम्मिलित थे। उत्पादन में सक्रिय भागीदार न होने पर भी उनके पास अथाह सम्पत्ति थी और वे राज्य द्वारा सम्मान प्राप्त थे । दूसरा वर्ग भूमिहीन किसानों, निर्धन श्रमिकों, भृतकों और दास-दासियों का था । उत्पादन में सक्रिय भागीदार होने पर भी उन्हें धन का उचित अंश नहीं मिल