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२०० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
विलास के साधन तो थे ही पर उनका आर्थिक महत्त्व भी कम नहीं था । भाँति-भाँति के फलों, वृक्षों से पौष्टिक आहार और औषधियाँ उपलब्ध होती थीं । जैन ग्रन्थों में आम के सहस्रों वृक्षों वाले वनों के उल्लेख से प्रतीत होता है कि इतने बड़े पैमाने पर लगाये गये वनों बगीचों का उद्देश्य व्यावसायिक ही रहा होगा। नदियों, झीलों तथा सरोवरों से मछलियों के पकड़े जाने के उल्लेख से मत्स्यपालन की प्रथा का ज्ञान होता है । इससे भी लोगों को आजीविका मिलती थी ।
देश के आर्थिक विकास में उद्योगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । गुप्तकाल में देश की खनिज सम्पदा और वनसम्पदा के विदोहन से उद्योगों में वृद्धि हुई थी । उद्योगों में वस्त्र, काष्ठ, धातु आदि के उद्योग उन्नत अवस्था में थे । गुप्तकाल में सामान्य शिल्पों ने भी लघुस्तरीय उद्योगों का रूप ले लिया था । नगर के बाहर अनेक प्रकार की कर्मशालाओं के होने का उल्लेख प्राप्त होता है इससे तत्कालीन लोगों को सूझ-बूझ का अनुमान लगाया जा सकता है । इससे कच्चे माल और श्रम की पूर्ति सरलता से होती होगी और मालगाड़ियों के आवागमन से नगरीय यातायात बाधित नहीं होता होगा । औद्योगिक और कृषि उत्पादनों के लिये देशी और विदेशी मंडियाँ थीं । शिल्पियों की सुरक्षा और संरक्षा के लिये उनके संघ 1 और श्रेणियाँ थीं ।
जैनग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि देशी और विदेशी व्यापार श्रेष्ठियों, सार्थवाहों और गाथापतियों के हाथ में था । राजसभा में श्रेष्ठी और सार्थवाह की उपस्थिति राज्य में व्यापार के बढ़ते महत्त्व को प्रदर्शित करती है । ऐसा प्रतीत होता है कि ये राजा को वाणिज्य और उद्योग सम्बन्धी परामर्श देने में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे । पुरुषों के अतिरिक्त स्त्रियाँ भी व्यावसायिक बुद्धि रखती थीं । भद्रा नामक सार्थवाही तथा थावच्चा नामक गाथापत्नी इसकी उदाहरण हैं । कृषि और उद्योग से देश की व्यापारिक स्थिति सुदृढ़ हुई थी । व्यापार इतना उन्नत था कि वस्तुओं के आधार पर बाजारों का वर्गीकरण किया जाता था और अलग-अलग वस्तुओं के आपण और हाट हुआ करते थे । उपभोक्ताओं 1 की सुविधा के लिये आज के विभागीय भण्डार की तरह बड़ी-बड़ी दुकानें थीं जिन्हें 'कुत्तियावण' ( कुत्रिकापण ) कहा जाता था । यहाँ सब प्रकार की वस्तुएँ उपलब्ध थीं । जैन ग्रन्थों में व्यापारियों के लिये निंदनीय और