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उपसंहार
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प्राचीन जैन साहित्य आगमों, उन पर लिखी गई नियुक्तियों भाष्यों, चूर्णियों, टीकाओं, आगमेतर कथा-ग्रन्थों तथा दार्शनिक ग्रंथों के रूप में सुरक्षित है । मैंने अपने इस ग्रन्थ में इनमें प्रतिबिम्बित अर्थ-व्यवस्था का चित्रण किया है।
निवृत्तिमार्ग का उपदेश देने वाले जैन ग्रन्थों में भी लौकिक सुखसुविधाओं के लिए धन के महत्त्व को स्वीकार किया है और धार्मिक नियमों का पालन करते हुये धन का अर्जन किस प्रकार सम्भव है इस तथ्य का विस्तृत विश्लेषण किया है । यद्यपि जैन विचारकों ने आधुनिक अर्थशास्त्रियों को तरह स्पष्ट रूप से उत्पादन के साधनों का भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रबन्ध के रूप में विभाजन नहीं किया है तथापि इन सब तथ्यों का यथावसर विश्लेषण एवं विवेचन किया है जैसे भूमि को कृषि के लिए आवश्यक मानते हुए उत्पादन के लिए प्राकृतिक साधनों के विदोहन को स्वीकार किया है । आर्थिक जीवन में वनों के महत्त्व को देखते हुए वन सम्पदा को सुरक्षित रखने पर बल देते हुए, कृषि आदि के लिए वनों को जलाने और काटने का स्पष्ट निषेध किया है । इसी प्रकार जलसम्पदा को भी सुरक्षित रखने हेतु जलाशयों को सुखाने और पाटने से विरत रहने का निर्देश दिया है । विभिन्न धातुओं के सिक्कों और मूल्यवान रत्नों के आभूषणों के निर्माण से स्पष्ट है कि खनिज सम्पदा का समुचित विदो - न किया जाता था ।
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कुटुम्बियों, भृत्यों, दास-दासियों, गोपालकों, भागीदारों, कर्मकारों आदि के बार-बार उल्लेख से निश्चित है कि उत्पादन में श्रम का पर्याप्त योगदान था । कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के शिल्पी अपनी योग्यता और क्षमता के अनुरूप विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन कर राष्ट्रीय आय में वृद्धि करते थे । जैनग्रन्थों में अहिंसा - पालन के विधान स्वरूप 'अधिभार' अर्थात् श्रमिक से उसकेसामर्थ्य से अधिक श्रम लेने भोजन आदि की सुविधा न देने, उसको आजीविका से वंचित करने आदि का निषेध करके आज से शताब्दियों पूर्व एक सुनियोजित श्रम व्यवस्था की स्थापना की गई थी । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में पूँजी के