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अष्टम अध्याय : १९१ और उबटनों से शरीर को सुन्दर बनाया जाया था ।" सूत्रकृतांग में उल्लिखित स्त्रियों की सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री से प्रतीत होता है कि विलासमय पदार्थों का पर्याप्त उत्पादन होता था ।
स्त्रियों के समान पुरुष भी आकर्षक लगने के लिये शृंगार में रुचि रखते थे। पुरुषों की प्रसाधन क्रिया विशेषतः स्नान से सम्बन्धित थी । राजाओं और सम्पन्न जन के भव्य स्नानगृह होते थे जहाँ " अंगमर्दक" भी होते थे जो सूक्ष्म से सूक्ष्म अंगमर्दन की क्रियाओं में दक्ष होते थे । राजाओं के इन भव्य स्नान गृहों की तुलना आज के "सोनाबाथ" से की जा सकती है। पुरुषों के शृंगार और मंडन में "नापित" की सेवाओं का भी बड़ा महत्त्व था ये क्षौरकर्म तथा अलंकारकर्म करते थे । ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख है कि धन्ना नामक सार्थवाह अलंकारिक सभा में क्षौरकर्म करने गया था। राजगिरि के नंदमणिकार ने पुष्पकरिणी के तट पर 'अलंकारिक सभा' बनवाई थी जिसमें क्षौरकर्म करने के लिये वेतन पर नाई रखे थे । वेश-भूषा में पैरों को आच्छादित करने के लिये उपानह अर्थात् जूतों का भी महत्त्व था । भाष्यकाल तथा चूर्णिकाल में चमड़े के भाँति-भाँति के सुन्दर जूते पहने जाते थे ।
आवास
जीवन में भोजन और वसन के समान आवास का भी महत्त्व है । आर्थिक क्षमता और स्तर के अनुसार ही निवासगृह बनाये जाते थे । बृहत्कल्पभाष्य से ज्ञात होता है कि वास्तुपाठक घर बनाने से पहले भूमि की परीक्षा करते थे, तत्पश्चात् भवन की नींव दृढ़ की जाती थी और और उसके ऊपर भवन बनाया जाता था । उत्तराध्ययनचूर्णि में ३ प्रकार के भवन – खाट, उसिट और खाट उसिट का उल्लेख है । खाट - अर्थात्
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१. आचारांग, २/२/३/९६ : बृहत्कल्पभाष्य भाग २ गाथा २५५७;
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निशीथचूर्ण, भाग २ पृ० २६, भाग ४ गाथा ५२०४
२. सूत्रकृतांग, १/४/२/२८४-८५
३. ज्ञाताधर्मकथांग, ४/२४
४. ज्ञाताधर्मकथांग, २ / ५८
वही, १३ / २३
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६. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा २८८५; निशीथचूर्णि भाग २, गाथा ९१४ ७. वही, भाग १ गाथा ३३