Book Title: Prachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Author(s): Kamal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyashram Shodh Samsthan

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Page 205
________________ १९२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन भमि को खोदकर उसके नीचे बनाये हये भौरें या तहखाने जैसे, उसिटअर्थात् भूमि के उपर बनाये गये और खाट-उसिट अर्थात् भूमि-स्तर के नीचे तथा ऊपर संयुक्त रूप में बनाये गये भवनों का उल्लेख है।' निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि निवासस्थानों को कई प्रकार से सुसंस्कृत किया जाता था जैसे कि 'संस्थापन' गृह के जीर्ण स्थान को गिरने से रोकना, परिकर्म-गृहभूमि को समतल करना, उपलेपन अर्थात् शीतकाल में द्वार संकरे कर देना, गर्मी में चौड़े कर देना और वर्षा ऋतु में पानी बहने के मार्ग बनाना आदि क्रियायें की जाती थीं।२ घरों के निर्माण में पत्थर, चूना, बाल और पकाई गई ईंटों का प्रयोग किया जाता था । आचारांग से स्पष्ट होता है कि निवासगृहों की योजना में पाकगृह, स्नानगृह और शौचगह बनाये जाते थे। पेयजल के निमित्त कुएं खुदवाये जाते थे। दूषित जल बहाने के लिये नालियाँ बनाई जाती थीं। भवनों की दीवारें चूने या मिट्टी से पोती जाती थीं, छतों और दीवारों पर चित्रकारी की जाती थी।" सम्पन्न लोगों के घर सोनेचाँदी और मणियों से खचित स्तम्भों वाले, स्फटिकमणियों की भूमि वाले, एकाधिक तलों वाले", ऋतु के अनुकूल सर्वसुविधा सम्पन्न होते थे। कल्पसूत्र से पता चलता है कि साधारण गृहस्थ भी शुद्धवायु के आवागमन वाले घरों में निवास करते थे जहाँ कम से कम कुएँ का साफ पानी और गंदे पानी के निकास के लिये नाली बनी रहती थी। आचारांग से ज्ञात होता है कि सम्पन्न व्यक्तियों की तुलना में निर्धन व्यक्तियों के १. उत्तराध्ययनचूणि, ४/१०० २. निशीथचूणि, भाग २, गाथा २०२९, २०३१ ३. प्रश्नव्याकरण २/१३; बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४, गाथा ४७६८ ४. आचारांग, २/१/६/३२ ५. ज्ञाताधर्मकथांग, १/१८ ६. कल्पसूत्र, १५ ७. उत्तराध्ययन, १९/४, ८. निशीथचूर्णि, भाग ३, गाथा २७९४ ९. कल्पसूत्र, २२५

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