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अष्टम : अध्याय १८९
वेश-भूषा
वस्त्रोद्योग उन्नतावस्था पर होने के कारण वस्त्रों की विविधता और बहुलता दोनों प्रचुर परिमाण में लक्षित होती हैं । अपने आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार लोग अपने को अलंकृत करते थे। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में भी सामान्यतः दो प्रकार के वस्त्रों का उपयोग किया जाता था अधोवस्त्र अर्थात् नीचे की धोती जैसा वस्त्र और ऊर्ध्ववस्त्र अर्थात् उत्तरीय या देशाले जैसा वस्त्र ।' यद्यपि सीवग, तुन्नग (जियों) का उल्लेख हुआ है। पर सिले हुये कपड़ों का उल्लेख कहीं नहीं है। समाज में सूती, ऊनी, रेशमो और चर्म-वस्त्रों का प्रचलन था। सर्वसाधारण सूती और सम्पन्न व्यक्ति भाँति-भाँति के सुन्दर रेशमी वस्त्र पहनते थे । स्त्रीपुरुष समानतः सुन्दर, महीन और सुवर्णतारों से बने वस्त्रों को रुचि से पहनते थे। ज्ञातधर्मकथांग से ज्ञात है कि मेघकुमार की माँ रानी धारणी स्वर्णतारों से सुशोभित पारदर्शक और सुन्दर वस्त्र पहनती थी। इसी प्रकार भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि जमालिकुमार ने ऐसा सुन्दर उत्तरीय धारण कर रखा था जिसके किनारे पर स्वर्णतारों से हंसयुग्म बनाये गये थे।५ मेगस्थनीज ने भी भारतीयों के स्वर्णतारों से बने वस्त्रों का उल्लेख किया है।
देश और काल का ध्यान रखकर वस्त्र धारण किए जाते थे । औपपातिक से पता चलता है कि विशेष अवसरों पर पहने जाने वाले वस्त्र नित्य के वस्त्रों से भिन्न होते थे जैसे सभा में जाने के लिये श्वेत और स्वच्छ वस्त्र पहने जाते थे । पर्यों तथा उत्सवों पर लोग विभिन्न-विभिन्न रंगों के सुन्दर वस्त्र पहनते थे। निशीथचूर्णि में ऋतु के अनुसार वस्त्रों के चयन.
१. भगवतीसूत्र ९।३३।५७ २. प्रज्ञापना, १।१०५, १०६; जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३।१० ३. ज्ञाताधर्मकथांग ११३३ ; आचारांग २।५।१।१४४ ४. ज्ञाताधर्मकथांग , २/३३ ५. भगवतीसूत्र, ९/३ ६. पुरी, बैजनाथ, इण्डिया एज डिस्क्राब्ड बाइ अर्ली ग्रीक राईटर्स पृ० ९० ७. औपपातिक सत्र, १७ ८. निशीथचूणि, भाग २, गाथा ९५२